भारी कोलाहल के मध्य नगर के प्रवेश द्वार पर होड़ मची थी कि गुरुदेव के चरणों को कौन पखारेगा, सभी एक दूसरे से धक्का मुक्की कर रहे थे नगर के बड़े बड़े श्रेष्ठिजन उत्सुक हो कर बटुकजनो के इस प्रतिस्पर्धा पूर्ण व्यवहार को देख मन ही मन आनंदित हो रहे थे तभी एक ह्र्दयभेदी चीत्कार से सभी चोंक पड़े। देखा कि गुरुवर बटुकजनो के प्रेम से विवह्ल हो कर भूमि पर आ गिरे और सभी उन्हें उठाने को दौड़े। तभी फिर से चीत्कार हुई और इस बार की चीत्कार में प्रेम विवह्लता नही प्रतीत हो रही थी। हुई तो पिछली वाली चीत्कार में भी नही थी परंतु कथा को थोड़ा साहित्यिक बनाने के चक्कर मे बता दिया। सत्य बात तो ये थी कि चीत्कार में विव्हलता न होकर विवशता ही थी। गुरु थे महान योगिराज मुनि संकटसागर ! अवश्य ही ठीक पढ़ रहे है गुरुवर संकटसागर एक बार पुनः हिमालय से उतर कर इस कलिकाल से ग्रसित धरातल पर आ चुके थे। आगे....................
मूर्खो तुम्हे अपने से वृद्धजनों से कैसे व्यवहार किया जाए इतना भी ज्ञात नही? मुनिवर लगभग रुंधे गले से बोले क्योंकि उनके शरीर के मध्य पश्चिम भाग में हुई पीड़ा ही इतनी घोर थी कि मुनिवर छिपा न सके। सभी भक्तगण के धक्का मुक्की में मुनिवर भू लुंठित हो चुके थे।
लज्जित बटुकजन बिना मन के बोले " कचौरी , समोसा और मिर्चिबड़ा आदि पदार्थ लाएं?"
सबसे आगे डब्बाचारी हाथ जोड़े खड़ा था गुरुवर उससे बोले कि सब छोड़ो और रथ ले आओ और इस जन समुदाय से दूर कही चलो बहुत ही ज्यादा हमारा मर्म किसी को पता न चले अन्यथा मध्य पश्चिम भाग के साथ उत्तर पूर्व में भी पीड़ा हो सकती है।
दिग्भ्रमित डब्बाचारी बोले " हे प्रभो ! ये उत्तर दक्षिण पूरब पछिम समझ नही आ रहा कृपया विस्तार से समझाए'
झुंझलाए मुनिवर बोले " वत्स हम योगियों को प्रचार नही सुहाता अतः एकांत में चलना चाहते है और इतने जन समुदाय के समक्ष हमारे मध्य पश्चिम भाग के बल पर पतित होने पर हर्षित ये जन हमारी विचित्र सी वार्ता पर क्षुब्ध भी तो हो सकते है अतः शीघ्र यहां से प्रस्थान करो।
इतना सुनते ही सभी बटुक मंडली गुरुवर को अपने साथ द्विचक्र रथ पर बिठा के चम्पत हो लिए।
ब्यावरारण्य बहुत ही परिवर्तित हो चुका था समस्त वन के प्राणी विस्थापित हो चुके थे और उनके विस्थापन से वन और भी सुरम्य हो चला था। बचे खुचे प्राणी वन में लगे कचौर्यक के वृक्षो से अपनी भूख मिटाते और बार नामक जल स्रोतों से अपनी प्यास बुझा लेते थे।
रथ पर बैठे डब्बाचारी मुनिवर से बोले , गुरुदेव आप हिमालय पर इतने समय कैसे रह पाए? वहाँ तो चयसरिता भी नही बहती और कचौर्यक वृक्षों का भी वहां सर्वथा अभाव है फिर ये कैसे संभव हुआ?
मुनिवर गंभीर स्वर से बोले ' वत्स डब्बे , कृपा करके अपने गुरु को सुरक्षित एकांत में ले चलो क्योंकि तुम्हारी जिज्ञासा और रथ संचालन में समन्वय नही हो रहा और मध्य पश्चिम भाग में पीड़ा ठीक नही हुई है। ऐसा न हो ये संक्रमण मैं तुम्हे भी दे डालू अतः चुपचाप रहो।
डब्वचारी के द्विचक्र रथ में यद्यपि वह बात नही थी जो मुनिवर के युवाकाल के स्वतंत्र रथ में थी , परंतु अब काफी समय हो चला था और पुराने रथ अब प्रचलन में नही थे अब सक्रिय , बृहस्पति , और पारंगत आदि द्विचक्र रथ ज्यादा पसंद किए जाने लगे थे। फिर भी मुनिवर पीछे बैठे बैठे तर्जनी के संकेत से रथ चालक को इधर उधर घुमाते घुमाते एक निर्जन स्थान पर ले आये। और एक शिला पर बैठ कर ध्यानस्थ हो गए।
बहुत समय व्यतीत हो चला था । डब्वचारी जम्हाई लेते लेते बहुत बार झपकी ले कर सोते जागते समय काट रहे थे। तभी महात्मा थानोस की तर्ज पर चुटकी बजाते हुए मुनिवर समाधि से बाहर आये।
डब्वचारी की तन्द्रा टूटी , बोले " मुनिवर आप इतने समय से कहाँ पर थे और आपके द्वारा जिन महापुरुषों का सत्संग हमे मिला वो कहा अंतर्धान हो गए, समस्त ब्यवरारण्य प्रतीक्षा करते करते उन्हें भूल गया है कृपया विस्तार से बताएं "
काल:क्रीडति ....................................................
बोल कर मुनिवर ऐसे मौन हो चले मानो आकाशीय तड़ित के गुंजार के पश्चात जैसे शांति छा जाती है और ठीक मेघ गर्जन के पश्चात जैसे जलवर्षा होती है उसी प्रकार मुनिवर के गोलाकार नेत्रो से अश्रुधार बह चली।
मुनिवर की विह्वल दशा देख कर हाथ जोड़ कर डब्वचारी बोले " भगवन ! आपके द्वारा कहे इस सूत्र की व्याख्या कीजिये और अपने आप को संयत कीजिये ताकि हम सब को भी सम्बल मिल सके। "
वत्स ! ये जगत समय के खेल के सिवा कुछ भी नही है। इसी काल मे ही समस्त जगत उत्पति स्थिति और संहार को प्राप्त होता है। और हम सब इसी खेल का अंश मात्र हैं और मिलन पर हर्ष और विछोह पर दुख ही प्रकट कर सकते हैं। मुनिवर बोल रहे थे ।
" मनुष्य की विवशता उसे किसी और को विवश करने को विवश कर देती है और वह विवशता का पीड़ित विवश व्यक्ति विवश किये जाने वाले कि विवशता को न समझ कर किसी अन्य व्यक्ति को विवश होने को विवश कर देता है यही सबसे बड़ी विवशता है ।" मुनिवर बोलते बोलते अपनी विवशता पर दुखी होते हुए सोचने लगे कि इस डब्वचारी को कुछ भी समझाना भी एक प्रकार की विवशता ही है।
डब्वचारी बोले " प्रभु मुझे जिज्ञासा किसी और विषय मे थी और आप कुछ और ही बताये जा रहे हो "
पुत्र ! मैं विवश हूँ ..... और इसी विवशता का बोध होना अतिदुष्कर है ।
"खण्ड मूर्ख प्रबल जाति क्लान्तर्भवति क्षिप्रता " ये सूत्र तुम्हे ज्ञात ही होगा। वत्स!
" जी गुरुवर ..... डब्वचारी बोले
तुम अभी वही हो , वही प्रबल मूर्ख जो शीघ्र ही क्लांत हो जाते हो। जीवन के चालीस बसंत पार कर चुके परन्तु प्रचण्ड मूर्ख स्तर को नही पा सके ....... तुम्हे स्पृह वायु के संसर्ग से बचना चाहिए। मुनिवर कह चुके।
प्रभो क्षमा ..... आगे से ऐसी त्रुटि नही होगी .....
डब्वचारी कम्पित हाथो को जोड़कर बोले ।
सुनो..... एक विवश पिता जो अपनी एक विवश पति भी है उसकी विवशता एक संक्रामक रोग बन कर कितनो को विवश कर गयी ये उसकी महागाथा है।
ब्यवरारण्य में चयसरियताओं का एक जाल सा बुना हुआ है , प्रत्येक पर्वत से अनगिनत चयसरिताओ का प्रस्फुटन होता रहता है। पुरुषोत्तम पर्वत जिसका उद्गम गन्धनगर जो कि आदर्श नगर के ही पास स्थित है से हुआ है । पुरषोतम पर्वत का शिखर ब्यवरारण्य के अजयमेरु द्वार से भीतर प्रवेश करने पर प्रथम चौराहे पर देखा जा सकता है। इस पर्वत की प्रसिद्धि ज्यादा नही है जितनी कि जामुन पर्वत या गर्वन्ध पर्वत की है। परंतु पुरषोतम पर्वत के निवासियों मे कन्दुक मुखी नामक एक राक्षसी भी है और उसी राक्षसी ने विवशता के झरने का द्वार खोल दिया था ये कथा उसी के बारे में है।
परमेष्ठिन .....! ये आदर्शनगर तो शेनुराज का निवास स्थान है क्या कथा का सम्बंध उन्ही से है ? डब्वचारी को जिज्ञासा हुई।
सही पकड़े हो..... वत्स ! आगे सुनो
मुनिवर ने आगे बोलना शुरू किया....
राक्षसी कंदुकमुखी के दो पुत्रिया थी । प्रथम पुत्री को जयरण्य में निवास करने वाला भीष्मक नामक राक्षस हरण करके ले गया। कंदुकमुखी को अब द्वितीय पुत्री की चिंता खाने लगी उसका नाम शशिप्रभा था। यथा नाम तथा गुण ...... शशिप्रभा युवा अवस्था मे प्रवेश करने के बाद महीने के 15 दिन दिखाई देती और बाकी के 15 दिन कही छिप जाती थी। कंदुकमुखी बाकी के 15 दिन लोकसमुदाय में इधर उधर की बाते बनाकर काम चला लेती थी। परंतु ब्यवरारण्य के पशु बहुत ही भीषण मूर्ख है तुम तो परिचित हो ही। इन पशुओं का ब्यवरारण्य की सभी कंदराओं में आना जाना होता है वो उन 15 दिनों की सत्यता को जान चुके थे। कंदुकमुखी की बाते बनाना अब काम नही कर रहा था।
परंतु प्रभु! ऐसी क्या सत्यता ज्ञात होने का भय कंदुकमुखी को था जो वो बाते बनाती थी? डब्वचारी ने उचित प्रश्न किया।
वत्स! सत्य क्या होता है ? सुनो सत्य वही होता है जो श्रोता सुनना चाहता है । जो श्रोता नही सुनना चाहता वह असत्य हो जाता है। कंदुकमुखी जो चाहती थी वह सत्य के रूप में बताती थी । और ब्यवरारण्य क पशु जो आनंद शशिप्रभा के 15 दिवस के लोप होने के संभावित कारण जानते थे उसे सत्य के रूप में प्रचारित करने लगे।
शशिप्रभा की एक विवशता थी जो कि सत्य के रूप में बाहर आ गयी। वास्तव में शशिप्रभा 15 दिवस अप्सरा में परिवर्तित हो जाती थी और बाकी के समय अपने मानव रूप में आ जाती थी । जब वह अप्सरा रूप में होती थी तब वह एक गुरुकुल के आचार्य को मोहित करके उसकी तपस्या भंग कर देती थी । गुरुकुल के आचार्य ने शशिप्रभा को प्रधान शिक्षिका का पद प्रदान कर दिया और प्रचारित कर दिया कि वह अप्सरा अपनी प्रसन्नता से ये सब करती है। परंतु शशिप्रभा स्पृह वायु के संसर्ग से विवशता के चरम पर पहुच चुकी थी। कंदुकमुखी ने इस सत्य के उदघाटित होने से पूर्व ही शशिप्रभा के हरण की योजना बनाई।
ब्यवरारण्य के सभी जंतु शशिप्रभा को अपनी कंदराओं से दूर रखना चाहते थे अतः कंदुकमुखी ने शेनुराज की कंदरा में शशिप्रभा का सत्य छिपाना चाहा। शेनुराज बहुत समय से तपस्या कर रहे थे कोई अप्सरा उनका ध्यान भंग नही कर पाई थी। कंदुकमुखी ने शेनुराज की तपस्या भंग करने शशिप्रभा को भेजा और शेनुराज इतने ही पर बैठे थे बाण हृदय पर खा बैठे।
" रंग भरे बादल पे
तेरे सपनो के काजल से
मैंने मेरे दिल पर लिख लिया
तेरा नाम ...... शशिप्रभा ओ मेरी शशिप्रभा.... ""
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