Monday, December 19, 2016

श्री राहुल गांधी की दुविधा

व्यक्ति विशेष: श्री राहुल गांधी
उपाध्यक्ष भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस

        आज व्यक्ति विशेष में हम बात करेंगे वर्तमान कांग्रेस के युवराज श्री राहुल गांधी जी की जो आजकल एक नयी तरह की राजनीती के कारण चर्चा में हैं जो कि उनके लिए अच्छा भी है। क्योंकि जिस तरह 2014 का लोकसभा  चुनाव में उनकी पार्टी की हालत उन्ही के परिवार के चापलूस मंत्रियों के चलते हुयी, और जिस तरह की छवि जनमानस में उनको लेकर है  उस छवि को तोडना अभी उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती बनी हुयी है। परंतु जिस विधि का उपयोग पनीर बनाने में होता है उस विधि से दही नहीं जमाया जा सकता है  और ठीक  वही  स्थिति कमोबेश कांग्रेस की हो रही है। कांग्रेस के कर्णधार यह क्यों नहीं समझ पा रहे हैं कि युद्ध लड़ने के लिए सेना होती है जिसका सेनापतित्व एक अनुभवी सेनापति ही कर सकता है कुशल रणनीति और सुचारू सञ्चालन ही युद्ध में विजयश्री दिला सकता है । दुर्भाग्य से कांग्रेस में ऐसा कोई महारथी फ़िलहाल नहीं दीखता है, जिसके  चलते उपाध्यक्ष स्वयं आक्रमण की अगुआई कर रहे है , राजनीती के इस रणांगण में कांग्रेस का हरावल दस्ता सेनापति के पीछे खुद को बचाने में ही लगा है  और सेनापति जो  खुद ही युवराज है  कम अनुभव के चलते अपनी ही छवि पर रोज़ नए नए घाव लगाते जा रहे है । बाद में बाकि के सिपहसालार हारे हुए जुआरियों की तरह अपने नेता को सही सलाह न देकर चापलूसी में आकर नेता के हर कदम को सही ठहराने में जुट जाते हैं।
        वर्तमान में राहुल गांधी बिलकुल वही सबकुछ कर रहे हैं जो अरविन्द केजरीवाल  दिल्ली में सफलता पूर्वक कर चुके हैं, लेकिन राहुल गांधी क्योंकर असफल  पर असफल हुए जा रहे हैं? क्या कारन है कि जिस  तरह की जुबानी जमाखर्च से केजरीवाल ने दिल्ली की चूलें हिला डाली वही शब्दावली राहुल गाँधी का कोई भला नहीं कर  पा रही है? तो इसका सीधा सा एक कारण है और वो है दोनों नेताओ और पार्टियों में जमीन आसमान का अंतर और दोनों के नेतृत्व का भिन्न तरीको से हुआ विकास है । अरविन्द केजरीवाल एक मात्र थिंकटैंक है अपनी पार्टी के और उनके पास खोने को कुछ भी नहीं है न ही कोई राजनीतिक विरासत है जिसकी परम्परा को उन्हें निभाना है और उनका वोट बैंक ज्यादा तर्क करने में समय नहीं व्यर्थ करता है ज्यादातर केजरीवाल समर्थक लोग युवा है जो किसी बड़ी पार्टी में जगह बनाने में समर्थ नहीं हुए वो ही आप के कार्यकर्त्ता बने हुए हैं, वहीँ दूसरी और 125 साल पुरानी सर्वाधिक समय शासन में रहने वाली पार्टी जिसकी एक विचारधारा है और संसदीय परम्पराओ की मर्यादा  इसका नेतृत्व समझता है और रणनीति से चल कर राजनीती करते आया है परन्तु लोकसभा के चुनावो में मिली हार से ही पार्टी कमजोर नहीं हुयी, कांग्रेस तो भारतीय जनसंघ के बीजेपी में विलय के बाद से ही कमजोर होती जा रही है।
ऐसे में श्री राहुल गाँधी को सिर्फ इतना करना था कि अपनी माताजी की तरह पीएम के दावेदार न बनकर केवल पार्टी संगठन का कामकाज देखना था, और यूपीए के समय हार के जिम्मेदार नेताओ को दरकिनार कर के नए कार्यकर्ताओँ को आगे बढ़ाना था जो नयी टीम बनती वो कुछ सपने मतदाताओं के दिलो में जगा सकती थी और उसके बाद किसी वफादार को पीएम उम्मीदवार बना देते और भ्रष्टाचार को रोकते तो यह गत न हुयी होती परंतु जिस तरह की सामंती संस्कृति कांग्रेस में है उसके चलते या तो श्री राहुल गांधी यह समझ नहीं पा रहे हैं कि इस संगठन को कैसे सुधारा जाये क्योंकि राहुल खुद इसी सामन्तवाद और परिवारवाद के चलते यँहा इस मुकाम तक पहुंचे है और या फिर उनके राजनीति इनके वश का कार्य ही नहीं, यह बात सारी कांग्रेस जानती है लेकिन अपनी गाँधी परिवार की भक्ति को अस्त्र बना कर नेतागण अपने अपने निजी स्वार्थ बचाने में लगे हुए हैं। जिस दल में अपने ही नेतृत्व को ठीक करने का सामर्थ्य विकसित न हुआ हो वो विपक्ष के लिए तो सर्वथा अनुपयुक्त है इन्हें चाहिए चौवालीस सीटो से त्यागपत्र दे कर निर्दलीय चुनाव लड़ ले शायद मतदाताओ ने जो इन्हें जिताया था में विश्वसनीयता बनी रहे।
श्री राहुल गांधी ने मनरेगा में मजदूरी कर के, दलित के घर भोजन विश्राम कर के, अध्यादेश को फाड़ के सब कुछ करके देख लिया प्रधानमंत्री पर निजी आक्रमण भी कर के देख लिया कोई परिणाम नहीं निकला अपनी दादी और पिता के किस्सों से मतदाताओ को जोड़ने का विफल प्रयास भी किया लेकिन कभी भी निर्भया कांड के बाद आंदोलनकारी जनता से साथ खड़े नहीं हुए और न ही रामदेव और अण्णा हज़ारे के पास ही गए हो ऐसा किसी को याद आता हो। जब भी पार्टी को जरूरत पड़ी युवराज नदारद थे। जनता के बीच में जाना और जाने  का दिखावा करना दोनों अलग अलग बात है और किसी विरोधी के खिलाफ निजी हमले करने के विचार उनके सहयोगी दिग्विजय सिंह और कपिल सिब्बल सरीखे मौकापरस्त नेताओ से ही उनके दिमाग में आया होगा लेकिन ये बात श्री राहुल गांधी जी को समझनी चाहिए कि अति कमजोर विरोधी ही निजी हमले करता है क्योंकि स्तर के वाद विवाद में वह परास्त हो चूका होता है यहाँ लालू मायावती के राज्यो में तो स्तरहीन आक्षेप चल सकते हैं परन्तु राष्ट्रीय स्तर पर ये सड़क की राजनीती ज्यादा दिन नहीं चल सकेगी। श्री राहुल गांधी अगर केजरीवाल को आदर्श माने बैठे हैं तो ये उनकी बड़ी मूर्खता होगी क्योंकि केजरीवाल में वह सामर्थ्य नहीं है कि भारत के प्रधानमंत्री बन सकें उनकी झगडे आरोप और कीचड़ की राजनीति एक ही तरह के निराश मतदाताओ को ही आकर्षित कर सकती है। यदि राहुल को किसी की नक़ल ही करनी हो तो प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्रमोदी की की करनी चाहिए हो सके बिना अक्ल की नक़ल उनका और कांग्रेस पार्टी का कुछ भला कर सके।
और अंत में चापलूसों से बच के यदि राहुल गांघी रह सके तो बेहतर होगा । इस विषय में श्रीतुलसीदास जी की यह चौपाई उद्दृत करता हूँ
सचिव वैद गुर तीन जो प्रिय बोलहिं भय आस, राज धर्म तन तीनि कर होहिं बेगहि नास
अर्थात् सलाहकार, वैद्य और गुरु यदि किसी भय या लालच के चलते सिर्फ मीठा मीठा असत्य ही बोलते रहे तो राज्य धर्म और शरीर तीनो जल्द ही नष्ट हो जाते है  श्री राहुल गाँधी को समय रहते स्वाध्याय करना होगा।

Wednesday, December 7, 2016

व्यक्तिविशेष: अरविन्द केजरीवाल

व्यक्ति विशेष: अरविन्द केजरीवाल

      भारतीय राजनीती के इस नए दौर में जहाँ एक और नरेंद्र मोदी जैसे मंझे हुए राजनेता है जो अंतराष्ट्रीय मंच पर अपनी छाप छोड़ने को आतुर और जुझारू दिखाई पड़ रहे हैं दूसरी और राष्ट्रीय राजनीती में संघर्ष करते कई चेहरे देखने को मिल रहे है। प्रथम नाम कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी हैं जो अपनी विचारधारा को लेकर ही किंकर्तव्यविमूढ़ दिखाई पड़ते हैं उनकी पार्टी में दिग्विजय सिंह, मणिशंकर अय्यर और जैसे नेता अलग ही सोच रखते है तो एक और कुमारी शैलजा और रणदीप सुरजेवाला टाइप जैसे पार्टी अध्यक्ष से नजदीकियां रख के पार्टी में टिके हुए है, कांग्रेस पिछले कई वर्षो से भारतीयो में विश्वास खोती चली गयी है, साथ ही कभी वामपंथ कभी पूंजीवाद के बिच झूल कर सामान्य भारतीय को भूल गयी सी लगती है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में राहुल गांधी का अपने पिता स्वर्गीय राजीवगांधी की तरह नर्म हिंदुत्व अपनाना केवल उत्तर प्रदेश की जनता को मूर्ख समझना ही लगता है।

     दूसरा नाम में कई क्षेत्रीय दल और उसके नेता हैं जो अपने क्षेत्र में मोदी से डरे हुए हैं और विरोधियो से गठबंधन करे हुए हैं राष्ट्रीय राजनीती में प्रधानमंत्री के योग्य कोई दावेदार अभी नज़र नहीं आता चाहे वो ममता बनर्जी हो जिनकी तुनकमिज़ाज़ी शायद बाकि के भारत की समझ नहीं आएगी या फिर उन्ही की तरह एकल नेतृत्व वाली मायावती हो और उनके राज्य के मुखिया अपने परिवार की कलह से बाहर शायद ही देख पाएं। बिहार में महागठबंधन की हालात भी किसी छिपी नहीं है मुख्यमंत्री भी नोटेबन्दी पर पीएम के साथ दिखाई पड़ रहे हैं, नितीश कुमार का एनडीए का समर्थन अभी समझ से बाहर होता जा रहा है, पीएम में धुर विरोधी रहे नितीश कुमार का पीएम को समर्थन शायद महागठबंधन में जाहिर फुटौव्वल का ही मुज़ाहिरा है। दक्षिण में जयललिता के अवसान के बाद मुख्यमंत्री और शशिकला दोनों का मोदी की तरफ झुकाव है साथ ही दक्षिण से लेकर ओडिसा तक कोई भी बड़ा व्यक्तित्व नहीं है जो मोदी का विकल्प बन सके।
         रही बात वामपंथी दलों की तो उनके खुद के नेतागण पूंजीपति हो चले हैं उनके बच्चे पश्चिम के कॉलेजो में पढ़ कर बहुराष्ट्रीय कम्पनियो में बड़े बड़े पैकेजो में कार्यरत हैं पीएम के खिलाफ खड़े होने का नैतिक बल शायद नहीं रखते साथ ही साम्यवाद के साथ ही उसका भाई समाजवाद परास्त हो चूका है और ये अब युवाओं को आकर्षित भी नहीं करता क्योंकि ये सेक्युलर न होकर इस्लामिक अतिवादियों का समर्थक हो चूका है साथ ही बहुसंख्यक विरोधी सोच भी एक बड़ा कारण है।

          अब केवल एक ही नाम बचा है और वो हैं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल जो शुरू से ही नरेंद्र मोदी के विरोधी रहे हैं, आईआईटी से निकला ये इंजीनियर पहिले तो टाटा में काम करने के बाद मदर टेरेसा के मिशन में रहे फिर आयकर विभाग में थोड़े बहुत वक़्त नौकरी कर के मनीष शिशोदिया के एनजीओ में काम किया फिर किस तरह अन्ना हज़ारे के साथ आंदोलन कर के राजनीती में आये, और आज दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में कार्यरत हैं, या फिर यूँ कह सकते हैं मोदी के विरोधी का अगर कोई पद है तो उसके अधिकारी ये खुद को मानते है।
          अरविन्द केजरीवाल का राजनीतिक झुकाव किस तरह के मार्ग पर है ये तय करना लगभग नामुमकिन है, प्रथम दृष्ट्या कोई भी कह सकता है की केजरीवाल सेक्युलर वामपंथ के अलमबरदार हैं जो सामंतवाद और पूंजीवाद के खिलाफ है और भ्रष्टाचार के खिलाफ है और इसी के चलते इनको दिल्ली में प्रचंड बहुमत भी मिला था। लेकिन अगर हम देखे तो मुख्यमंत्री के तौर पर ऐसा कुछ अरविन्द केजरीवाल ने किया दिखाई नहीं पड़ता। केवल और केवल मोदी विरोध करके वो मोदिविरोधियों में अपनी लोकप्रियता बनाये हुए हैं, उनकी प्रतिष्ठा मोदी विरोध में इतनी बढ़ी चढ़ी है की अब अन्य बड़े कद के नेता भी उनकी नक़ल करने पर उतर चुके है, चाहे पीओके में सर्जिकल स्ट्राइक का मामला रहा हो जिसमे पहिले राहुल गांधी ने सरकार का समर्थन किया था बाद में केजरीवाल के पलटी खाने पर राहुल ने भी पलटी मार ली थी या फिर नोटेबन्दी का निर्णय जिस पर सभी दल पहले केंद्र सरकार के समर्थन में दिखे फिर केजरीवाल जब 4 दिन बिना टवीट् किये रहने के पश्चात् नोटबंदी के खिलाफ हुए तब जेडीयू को छोड़ के सभी विपक्षीदल केजरीवाल की नक़ल में सरकार के विरोध मै आ खड़े हुए। यह कोई छोटी मोटी बात नहीं है।
     अरविन्द केजरीवाल ने सूनी रात में झींगुर की तरह जब शोर करना शुरू किया तब किसी को नहीं लगा था की यह आदमी इस तरह की राजनीती कर के विपक्ष में नंबर एक बन जायेगा। आज कोई भी काम मोदी करे तो सबसे पहले अरविन्द केजरीवाल के ट्वीट का इंतज़ार मीडिया को रहता है, राहुल गांधी क्या बोलते है कोई ध्यान नहीं देता और दो चार सांसदों वाले दल के मुखिया की इतनी प्रतिष्ठा है।
      केजरीवाल भ्रष्टाचार के खिलाफ नहीं है ऐसा इसिलए क्योंकि वो विपक्ष में मौजूद भ्रष्ट नेताओ का भी समर्थन करते हैं,  सामंतवाद के खिलाफ भी नही है क्योंकि दिल्ली विधानसभा का चुनाव जीतने के बाद पार्टी का संगठन जिस तरह खुद के पक्ष में बनाया वो जग जाहिर है, परिवारवाद के खिलाफ भी नहीं है क्योंकि पत्नी सुनीता केजरीवाल के पार्टी में आने को लेकर जिस तरह माहौल बनाया जा रहा है वो सभी ने देखा है पूंजीवाद के खिलाफ तो बिलकुल भी नहीं वो जिंदल स्टील के साथ उनके रिश्ते बता ही डालते हैं सेक्युलर इसलिए नहीं क्योंकि मुस्लिम तुष्टिकरण करते है।
केजरीवाल क्या केवल मोदी विरोधी हैँ? यह कहना आधा सच है, केजरीवाल सिस्टम के विरोधी है? यहभी अधूरा सच है असल में केजरीवाल अति महत्वाकांक्षा वाले व्यक्ति है जो एक प्रकार का तिलिस्म बनाये रखे है जो सत्ताविरोध का नेता उन्हें बनाता है। और जब वे खुद सत्ता में आते है तो अलग व्यवहार करते है और बड़ी सत्ता के लिए खुद को पीड़ित बताते है। केजरीवाल की राजनीती की धरतिपकड़ सोच कहे या भारतीय राजनीति का गिरता स्तर जो उन्हें विपक्ष का अघोषित नेता बनाये हुए है राजनीतिक विश्लेषकों के लिए मनोरंजक विषय है, और वो दिन भी देखने को मिल सकता है जब केजरिवाल धुर दक्षिणपंथ के साथ खड़े दिख जाएं क्योंकि केजरीवाल का कोई एक आयाम नहीं है देश काल परिस्तिथि के अनुसार जो लाभकारी होगा केजरीवाल वहीँ दिख पड़ेंगे

एक संस्कृत की सूक्ति अरविन्द केजरीवाल के लिए सर्वथा उपयुक्त है
 
        घट्म् भिन्द्यात् पट्म छिन्द्यात् कुर्यात् रासभरोहणं
        येन केन प्रकरेण        प्रसिद्धम् पुरुषो भवेत्

भावार्थ: घड़े फोड़ कर, कपडे फाड़कर या गधे की सवारी करके भी या कुछ भी करके पुरष प्रसिद्ध हो सकता है
( by breaking pots and tearing clothes or riding on a donkey a man tries to be famous by hook or crook)

Tuesday, March 8, 2016

चाणक्य का स्त्री विषयक ज्ञान Chanakya ka striyon k sambandh me gyan

चाणक्य काका के घर से मिली पाण्डुलिपि
विष्णुगुप्त चाणक्य कितने ज्ञानवान और चतुर थे यह किसी से छिपा नहीं है, चाणक्य को उनसे जलन रखने वालो से बड़ा खतरा था यह बात उन्हें पता चल गयी थी सो उन्होंने अपना सारा लिखित ज्ञान एक पुस्तक के रूप में जन साधारण के लिए लिख छोड़ा था| कुछ पुस्तक  आदि का नाम हमे पता है यथा चाणक्य नीति, अर्थशास्त्र आदि परंतु कुछ कार्य चाणक्य काका के अप्रकाशित रह गए बड़े दुःख के साथ कहना पड़ रहा है परंतु यह सच है की मगध के प्रधानमंत्री को अपनी पुस्तक के लिए प्रकाशक नहीं मिला, अब आप कहेंगे की बाकी की दो पुस्तक तो छप गयी फिर इसमें क्या समस्या  आ  गयी? तो पाठकवृंद के सामान्य ज्ञान के लिए कुछ शोध कार्य लेखक ने किया जो बताना चाहूँगा वो बात ऐसी है की वह पुस्तक लिखने से लेकर प्रकाशन तक में कितने रोड़े आये उतने तो नंदवंश के सर्वनाश में भी नहीं आये|
                अब यह  बात तो सर्वविदित है की चाणक्य काका कोई काकी वाकी के चक्कर में नहीं पड़े नहीं और वो समझदार भी थे सो इस विषय में लिखना चाहते थे की विवाह क्यों करे और क्यों न करे क्या लाभ हानि होंगे उनको पता थे सो उन्होंने अपने एक मित्र ऊंष्ट्रदन्त से यह सब बात कह डाली, ऊंष्ट्रदन्त  काका ने विवाह किया था सो सारा अनुभव अपने मित्र मतलब अपन के चाणक्य काका को कह डाला  चाणक्य काका ने सारा अनुभव एक पुस्तक के रूप में लिख डाला लेकिन महिला आयोग की सेंसरशिप  और गैर सरकारी संगठनो के विरोध के चलते प्रकाशीत नहीं करा पाये और सारा अमूल्य ज्ञान पांडुलिपी में ही लिखा रह गया , आप सब के प्रयोजनार्थ बड़ी हिम्मत के साथ ये पाण्डुलिपि आप सभी के सन्मुख प्रस्तुत कर रहा हूँ जिसके लिए सेकड़ो साल ये पाण्डुलिपि प्रतीक्षा कर रही थी| मेरे पास किसी तरह का कोई प्रकाशन अधिकार तो नहीं है और न ही चाणक्य काका आज रॉयल्टी लेने को इस धरा धाम पर प्रस्तुत हैं परंतु सूचना क्रांति के इस युग में ज्ञान को जितना ज्यादा फैलाया जा सकता है वैसा किसी दूसरे युग में सम्भव नहीं हो सकता था, अस्तु |
प्रस्तुत है चाणक्य काका का अमूल्य ग्रन्थ
                          सखी वा भार्या रिपु नराणाम्
भगवन श्री नारायण को प्रणाम करते हुए जो की अपने एक अवतार में स्त्री के कारन  वन को भटके और अन्य अवतार में युद्ध के सफाक्षी बने एवम् और भी कई अवतारो में स्त्री के कारन दुखी होकर पुनः अपने धाम को पधार गए उन्ही के नाम का आश्रय लेकर ये विष्णुगुप्त इस ग्रन्थ का प्रारम्भ करता है
   स्त्री माता के रूप में तो वंदनीय सदैव रहेगी  जैसे  माता यशोदा माता कौशल्या और माता अंजनी ग्रन्थ में केवल जीवनसाथी के रूप में स्त्री के गुण दोष पर प्रकाश डाला जायेगा
जब सृष्टि का आरम्भ हुआ तब से लेकर आज तक स्त्री मनुष्य जीवन में सबसे ज्यादा  समय लेती आई है, आज हम  नारियो  को लेकर अब तक बने सारे नियमो पर विचार करेंगें
        सखी वा भार्या रिपु नराणाम् , मार्जारी सृदृशम् कुर्वन्  क्रियाणाम ।
       भवनस्य चिंता महतीम् करोति , कूपे पतित्त्वा स्वामी  गृहाणाम् ।।
शब्दार्थ: पत्नी हो या प्रेमिका वस्तुतः पुरुष की शत्रु ही होती हैँ, घर में रहने वाली बिल्ली की तरह स्त्रियां भवन की चिंता  में आतुर रहती है चाहे गृहस्वामी कुएं में गिर जाये
भावार्थ: स्त्री जाति केवल भौतिक सुख सुविधा की प्रेमी होती हैं, उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं होता है कि उनका पति या प्रेमी किस तरह उनको मौज़ करवा रहा है वो स्वयं किस हाल में है बिल्ली जैसे जानवर की तरह आराम में असुविधा होते ही गुर्रा पड़ती हैं, स्त्रियां इस बात का दिखावा करती  हैं कि वे अपने पति की बहुत चिंता करती है वस्तुतः ऐसा नहीं होता वे तो करवा चौथ का व्रत भी दुनिया ताना न मारे इसलिए रखती हैं, अगर वो पति की चिंता करती तो पति जैसा है उसे स्वीकार कर लेती परन्तु बजाय ऐसा करने के उसे बदल डालने के लिए बहुत परिश्रम कर रहे पति को खरी खोटी सुनाती रहती है
               सा दृश्यति सा हृष्यति , सा खादति सा पिबति ।
             सः जुष्यति  सम  बलीवर्द: , सा  कथयति  चेष्ठा कुरु  ।।
शब्दार्थ: वो(स्त्री) देखती है वो प्रसन्न होती है, वो खाती पीती है,  वह(पुरुष) बैल की तरह जुता रहता है वो फिर भी कहती है और चेष्ठा करते रहो
भावार्थ: अपनी सुख सुविधा के साधन आदि को देख कर स्त्री प्रसन्न होती है मस्त खाती है मस्त पीती है अर्थात् बैठे बैठे सुखपूर्वक इच्छा करती रहती है। साथ ही पुरुष गाड़ी में जुते बैल की तरह परिश्रम करता रहता है , परंतु स्त्री कभी संतुष्ट नहीं होती अपितु पुरुष से और कुछ न कुछ मांग करती ही रहती है उन्हें इस बात का विचार नहीं होता की पुरुष ये सब कितनी तकलीफ से गुजर कर एकत्रित कर पाता है, स्त्रीया पुरुष को सदैव हतोत्साहित ही करती हैं
                     श्याला  श्वसुर: महाबुद्धि, किन्तु वा न महीतले ।
                     स्त्री स्वप्ने ते महादानी , वस्तुतः ते महाठग: ।।
शब्दार्थ: साला और ससुर महा बुद्धिमान होते हैं परंतु केवल स्त्री के सपनों और कल्पना में ही,     स्त्री के सपनों में वो महादानी हैं किंतु साले और ससुर महाठग ही होते हैं
भावार्थ: स्त्री को लगता है की उस्का भाई और बाप ही इस दुनिया में सबसे अधिक समझ वाले इंसान हैं परंतु सिर्फ ये स्त्री का सोचना ही है, स्त्री का भाई और बाप ने  बहुत कुछ त्याग और उत्सर्ग किया है ऐसा वो बार बार सुनाती रहती है परंतु होता यह है कि साला एवम्  ससुर ऐसे असुर होते है जो ठग पूर्वक पुरुष को अपनी बला पकड़ा देते हैं  खुद अपना सिरदर्द  स्त्री के पति को दे डालते हैं। पुराने ज़माने से स्त्रियों के लिए पतिव्रता होने के फायदे गिनाये गए हैं क्यों की सभी को पता है स्त्री जब तक न चाहे प्रणय सम्बन्ध बनते ही नहीं। और ससुराल जा कर रहना  स्त्रियों के लिए ही बनाया क्योंकि जवान होती लड़की को किसी दूसरे से चिपकाना ही बेहतर होता है।
              सदा दुःखभागी परिजन पतिनाम , विपरीत भागी स्वजनं स्त्रीणां ।
             प्रथमम् सदा कतुवचनम श्रुणोति , द्वितीये सदैवम् मत्तः चरन्ताम् ।।
शब्दार्थ: पुरुष के परिजन दुःख के ही लिए जन्म लेते हैं, और स्त्री के घर घर वाले सुख के लिए उत्पन्न होते हैं, प्रथम वाले अर्थात पुरूष के परिजन कटु वचन सुनने के आदी हो जाते हैं और दुखी होकर सुनते रहते है वहीँ द्वितीय मतलब नारी के घरवासि मस्त होकर विचरण करते हैं।
भावार्थ: चाणक्य काका का कहना है कि स्त्रियां अपने पति को इतना कुछ सुनाती है उनकी माँ बहन को गाली देती है  समझ दार पुरुष रक्त का घूँट पीकर सुन लेते हैं परंतु यदि कभी आवेग न रोक पाया पुरुष कुछ स्त्री के परिवार के विषय में कह दे तो दुगने वेग से खुद और अपने परिजनों के लिए भयंकर अपशब्दों का  प्रहार उसे सहन करना पड़ता है और न चाहते हुए स्त्री के सामने उसके घर वालो की झूठी प्रशंसा करनी पड़ती है। कुल मिला कर सांप छछूंदर वाली कहावत पुरुषों के लिए ही बनी है
              शास्त्रज्ञा  न  ताड़ येत नारी, रुदनम् तस्या महा अस्त्र।
                 यथा रोदनम् आरम्भ: , सकल विश्व  शत्रुम् भवेत् ।।
शब्दार्थ: शास्त्र में स्पष्ट आज्ञा है की स्त्री पर कभी हाथ नहीं उठाना चाहिए ( शायद ) क्योंकि अगर एक बार जो उसने रोना प्रारम्भ कर दिया तो उस ही समय से सारा विश्व आप से शत्रुवत व्यव्हार करने लगेगा।

भावार्थ: ग्रंथकार का मानना है की स्त्री ताड़ना के विरोध  में जो शात्रज्ञा है वो स्त्री के रोने वाले ब्रम्हास्त्र से बचने के लिए ही है क्योंनकी समाज के सारे लोग भले खुद स्त्री पर अत्याचार करते हों परंतु दूसरी स्त्री के लिए सहानुभूति का प्रदर्शन करते हैं और पुरुष को महा क्रूर बता कर आरोप लगा कर सजा दे डालते हैं, क्योंकि स्त्री कटुवचन बोल कर जितना आहत पुरुष को कर सकती है उतना पुरुष उसकी पिटाई कर के भी नहीं कर सकता उल्टा स्त्री पर हाथ उठा वह समाज की नज़रों में गिर जाता है। और स्वयं की नज़रो में भी गिर जाता है
         विवाह पूर्वे  सा नितम्ब  घर्षिणी, अल्प  निंद्रा  रुक्ष भोजनम् च।
       पश्चाद् विवाहे वृहद् जाता नितम्ब:, महाभार चेष्ठा  महाभार  चेष्ठा ।।
शब्दार्थ: स्त्रियां विवाह से पहले अपने पिता गृह में चाहे काम भोजन और अल्प निंद्रा में रहकर भी कोई शिकायत नहीं करती हो और अपने शरीर के नाजुक अंग जैसे की नितम्ब में पीड़ा भी सहन कर लेती हैं परन्तु पति गृह में आराम से मस्त रहती अपने शारीर का वजन बढ़ा लेती है  और फिर उससे अपने नितम्ब का भार भी नहीं उठाया जा सकता ( व्यंगयोक्ति अलंकार) ।
भावार्थ: स्त्री अपने पति से इतनी अपेक्षा लगा कर इतनी फ़रमाईश कर देती हैं जैसे की वो गृहस्वामिनी न होकर पति की माँलकिन हो और फिर खूब आराम के साधन ढूंढ कर पति को कंगाल बना कर खुद इतनी आलसी बन जाती है और शरीर की आकृति बेडौल बना डालती हैं ।
                                                  ।। इति ग्रन्थ।।
इस  ज्ञान वर्धक सामग्री को पढ़कर सभी को पढ़ने को प्रेरित करे और कृपया महिला आयोग में शिकायत न करें क्योंकि मैं एक महिला से ही इतना डरता हूँ तो महिला आयोग तो पता नहींक्या करेगा
आपका अपना
आशुतोष शर्मा 

Friday, February 19, 2016

दया धर्म का मूल है Daya Dharm ka Mool hai

                                   दया
    दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान |
  तुलसी दया न छांड़िये जब तक घट में प्राण ||
तुलसीदास जी की यह सूक्ति कोई भी देश काल हो प्रासंगिक रहती है, तुलसी अपने काल के महान कवि के साथ साथ एक धर्म  शास्त्रज्ञ और युगदृष्टा दार्शनिक महापुरुष भी थे| इन सभी से बढ़ कर तुलसी एक संत थे। यही सन्तत्व दया के पक्ष में तुलसी को खड़ा करता है, तुलसी शास्रज्ञ है और शास्त्र भी दया को धर्म के मुख्य अंग के रूप में प्रमुखता देता है।
     आज के परिप्रेक्ष्य में यदि हम दया को देखे तो पाएंगे की मानव अधिकार मत यह कहता है कि किसी मनुष्य पर दया कोई उपकार नहीं होता, समान प्रेम और सद भावना से व्यवहार प्रत्येक मानव का अधिकार है, और इसी अवधारणा पर काम करते हुए विश्व की लगभग सभी शासन व्यवस्थाओं में लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना पर बल दिया गया है। जिसमे मनुष्य का प्राण सर्वोपरि माना जाता है, सभी देशो की न्यायपालिका इसीलिए है कि स्थापित दंड संहिता के अनुरूप दया के विपरीत किये किसी भी कर्म को दण्डित कर सके चाहे वो मृत्युदंड भी क्यों न हो। और इन सब के ऊपर कार्यपालिका/शासनाध्यक्ष ( अधिनायक ) न्याय में सुधार  कर मृत्युदंड में क्षमादान भी दे सकते है, और इन सबके विपरीत जब कोई जीवित प्राणी ऐसी किसी निरुपाय व्याधि से जूझ रहा हो जिसकी चिकित्सा संभव न हो तब दया मृत्यु की मांग भी की जाती रही है।
                       तो दोनों विपरीत मार्ग एक ही एक स्थान पर कैसे जा सकेंगे भला ? एक मार्ग मृत्युदंड है जो दया न करने पर दिया गया है और दूसरा मार्ग दया के चलते मृत्यु देना हुआ? तो हम क्या समझें ? सब बातो का सार तो यही हुआ कि किसी मनुष्य अथवा प्राणी की पीड़ा को कम करने या समाप्त करने के लिए किसी दूसरे प्राणी या मनुष्य जो पीड़ा का कारण है उन्हें या निरुपाय होने पर पीड़ित का मर जाना श्रेयस्कर है और इस दिशा में किया गया कार्य दया कहलाता है। और यहीं दया का ध्येय पूरा हो ईजाता है । परन्तु दया आई कहाँ से इस पर विचार कर लेते हैं, दया के जन्म से ठीक पहले उसकी बड़ी बहिन सहानुभूति जन्म लेती है और जनसाधारण में बिना सहानुभूति के दया नहीं आ पाती है यह सहानुभूति क्या है इसके लिए उदाहरण है कि नित्य जीवन में हमारे आस पास कई जीव जन्तु मरते रहते हैं, अधिकतर जीव हमारे नेत्रों से दिखाई नहीं देते उनके मरण का ज्ञान भी नहीं होता शोक दया का तो प्रश्न ही नहीं उठता, किन्तु कुछ कीट वर्ग के जीव हमारे प्रमाद से या बचते बचाते भी मर जाते या आहत हो जाते है परन्तु हम उनकी पीड़ा में भोजन करना नहीं त्याग देते और न ही ज्यादा शोक मानते हैं किंतु जब यही प्राणी लाल रक्त वाला हो तब हम में से अधिकांश लोग भोजन नहीं कर पाते और कुछ लोगो की नींद भी उडी ही समझो। ऐसा क्यों?  लालरक्त का बहना ही सहानुभूति है जिसके चलते मनुष्य में अन्य मनुष्यो और मानवेतर प्राणियो ले प्रति दया उत्पन्न होती है हम जानते है रक्त बहना पीड़ादायक होता है इसी सहानुभूति के चलते दूसरे की पीड़ा स्वयं को सालती है। और हम दया के लिए विवश हो उठते हैं यही कारण है की सभ्य समाज में मृत्युदंड इस तरह दिया जाता है की रक्त बहता न दिखे। मनुष्य का स्वयं की पीड़ा के लिए भय ही सहानुभूति है उस भय के निवारण के लिए किया गया भलाई का काम जनसाधारण में दया कहलाता है। बिना कारण की गयी भलाई ही करुणा है जो किसी बिरले सन्त में ही होती है।
       जनसाधारण और सन्त से अलग कुछ मनुष्यों में दया का लोप हो जाता है परन्तु क्या कारण है दया के लोप होने का ?
तुलसी कहते हैं
        'काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पन्थ '
   काम अर्थात कामना करना बुरा नहीं किंतु ऐसी वस्तु या स्थिति जो हमारे अधिकार में न हो उसकी कामना करना बुरा है क्योंकि उसकी प्राप्ति में विघ्न को हटाने के लिए दया को त्यागना होगा, ठीक इसी तरह क्रोध और लोभ के चलते हम दया को भूल जाते हैं । मद अर्थात अहंकार में हम किसी को अपने स्व से महत्तर नही देखते दया को तो त्याग ही देते है क्योंकि हमारा अज्ञात के प्रति भय समाप्त हो जाता है और हम हिंसा करने लगते हैं कामना और लोभ के मार्ग में विघ्न आने पर क्रोध होता है फिर अहंकार बढ़ता है फिर दया का लोप हो जाता है
        समय की परिस्थितियों में हमे दया की भीख मांगनी पड़ती है भीषणतम अपराधी भी क्षमा याचिका लगाते देखे जाते हैं दया मानव जीवन में बार बार अपनी उपस्थिति दिखा ही देती है और इसी दया को करुणा में परिवर्तित कर पाना ही हम मनुष्यों का  कर्त्तव्य है यही धर्म है।
       सहानुभूति की वैसाखी पकडे दया जगत् के अंधकार में ज्यादा नहीं चल पाती वहीँ करुणा की दिव्य दृष्टि संसार के महान् भय दुःख के अंधकार को चीर सकती है

घुमड़ते बादल........

ऐतबार...... तर्क ग़म-ओ-ख़ुशी से बेदिल ये फ़लसफ़े हंसने रोने का भी इंकार करते हैं सुना था कही दूर झुरमुट में अमराई में कोई है ज...

Most viewed