Friday, November 10, 2017

गुजरात विधानसभा चुनाव 2017 : एक ज्योतिषीय विश्लेषण

Who wil win the gujarat polls , astrological analysis



गुजरात विधानसभा चुनाव 2017 :  एक ज्योतिषीय विश्लेषण 
(Gujarat polls of legislative assembly 2017: An astrological analysis)
     गुजरात विधानसभा चुनाव की रणभेरी बज चुकी है बड़े बड़े दिग्गज चुनाव में अपना भविष्य दाव पर लगाने जा रहे हैं। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्रमोदी के लिए गृह राज्य में जीतने का भारी दबाव है मानो प्रधानमंत्री के लिए चुनाव हो रहा हो , शायद इसिलए चुनाव के ठीक पहले कांग्रेस उपाध्यक्ष श्री राहुल गांधी को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने की भी कवायद चल रही है। मैदान में युवा शक्ति भी उतर चुकी है और प्रमुख नाम है पाटीदार आंदोलन से उभरे श्री हार्दिकपटेल जो चुनाव बहुत हद तक प्रभावित कर सकने में समर्थ भी हैं। इन सब के चलते एक भारी जिज्ञासा है कि गुजरात विधानसभा चुनाव में कौन विजयी होगा? राजनीति के पंडित भी अनुमान ही लगा सकते है , क्योंकि जनता जनार्दन के हाथों ही विजय पराजय का निर्णय होने वाला है। हम भी यह ज्योतिषीय विश्लेषण प्रस्तुत करते है जिसमे तीन मुख्य राजनेताओ की जन्मपत्रिका का विवेचन करने का प्रयास किया है
      यहां यह बात स्पष्ट कर देनी चाहिए कि प्रस्तुत लेख एक ज्योतिषीय विश्लेषण है न कि कोई भविष्यवाणी। अतः कोई दावा लेखक की ओर से नही है और यदि विश्लेषण से लेकर निष्कर्ष तक मे होने वाली त्रुटि को लेकर लेखक ही उत्तरदायी है ज्योतिष विद्या नही। ज्योतिष विद्या त्रुटिपूर्ण नही हो सकती । प्रस्तुत है विश्लेषण ।

Gujrat chunav bhavishyvani

    


    सर्वप्रथम हम श्री नरेन्द्रमोदी की जन्मपत्री का विश्लेषण करते हैं। श्री मोदी भारत के प्रधानमंत्री हैं एवं सर्वाधिक लोकप्रिय नेता हैं। आईये देखते हैं कि उनके जन्मकुंडली के ग्रहों की स्थिति ने उन्हें इस राजनीति का चतुर खिलाडी कैसे बनाया।
      श्री मोदी का जन्म वृश्चिक लग्न में हुआ है, और लग्न ही में स्वराशि के बली मंगल ने यहाँ एक पंचमहापुरुष योग में से एक योग 'रूचक योग' का निर्माण तो किया ही है साथ ही भाग्येश चन्द्रमा के नीचत्व को भी भंग कर दिया है इस तरह से जन्मलग्न और चन्द्रलग्न दोनो ही काफी बलशाली हो गए हैं। रूचक योग के चलते श्री मोदी निडर, साहसी और लोकप्रिय हुए साथ ही विद्वान और कुशल वक्ता और शत्रुओं पर विजय पा सके। यहां चन्द्रमा का नीच भंग होने और केमद्रुम योग के फलित न होने से चन्द्रमा मोदी की लिए विशेष फलदायक सिद्ध हुआ है। ज्ञातव्य है कि चन्द्रमा की महादशा में ही नरेन्द्र मोदी ने  लोकसभा में प्रभुत्व प्राप्त किया है। प्रधानमंत्री की कुंडली मे पाशयोग, गजकेसरी योग, पर्वत योग, काहल योग, कुसुमयोग, कल्पद्रुमयोग जैसे विभिन्न बलशाली योगों की सृष्टि हो रही है। श्री मोदीकी जन्मकुंडली काफी मजबूत है।
     वर्तमान में प्रधानमंत्री के भाग्येश चंद्रमा की महादशा में बुध का अंतर चल रहा है जो कि एक अस्त ग्रह है और बुधादित्य का निर्माण हो रहा है और बुध प्रथम दृष्टया मूलत्रिकोण में भी दिखाई पड़ते हैं बुध दशानाथ के अतिमित्र भी हैं तो कहा जा सकता है कि दशा शुभ रहने वाली है किन्तु  बुध अष्टमेश और एकादशेश भी है। त्रिक और त्रिषडाय दोनो का स्वामित्व होना और बुध का परम पापी होना और मूलत्रिकोण पूर्ण अंशो में नही बनना शायद शुभ फल न दे। यहाँ बुध वक्री है  और 30 सितंबर 2017 से अंतर्दशा प्रारम्भ हुई है ।वक्री बुध जो भी फल देंगे तीव्र ही होगा साथ ही राहु की दृष्टि बुध पर होना सारे फल में अकस्मात का भी पुट देती है। मोदी के राहु प्रबल हैं और चुनाव के विषय मे 60% अनुमान सफलता के होंगे।
      
       अब दृष्टि डालते हैं श्री राहुलगांधी जी के जन्मपत्र पर।
Gujarat polls 2017 astrological forecast

Gujarat chunav kaun jeetega?

      यहाँ श्री राहुलगांधी का जन्म मकर लग्न और वृश्चिक राशि के चन्द्रमा में हुआ है। प्रधानमंत्री मोदी की तरह गोचरफल राहुलगांधी का भी है। यहाँ लगता है कि श्री गांधी का पदोन्नत होना तय है, वे उपाध्यक्ष से अध्यक्ष तो बन ही जाएंगे। परंतु गुजरात विधानसभा चुनाव के परिप्रेक्ष्य में देखगे तो ग्रह दशा कुछ उलझाती हुई नज़र आ रही है।
     श्री गांधी की कुंडली मे लग्नेश शनि नीचस्थ हुए हैं और चन्द्रमा भी नीच हुए है।यह स्तिथि राहुल गांधी को सही समय पर सही निर्णय लेने में अक्षम बनाती है और बिना किसी की सहायता के श्री राहुल गांधी सोच भी नही पाते है इसका फायदा पार्टी के कई राजनेता निजी स्वार्थ में उठाते रहे हैं और यही कारण है कि श्री गांधी राजनीतिक रूप से सफल नही हो पा रहे। यहा श्री राहुलगांधी के वर्तमान में चंद्र महादशा में शनि का अंतर और बुध का प्रत्यंतर चल रहा है। यद्यपि बुध भाग्येश है परंतु साथ ही षष्टेश भी है और महादशानाथ चन्द्रमा जो नीचस्थ है कि दशा में नीचस्थ शनि का अंतर है। यहाँ शनि लग्नेश होने से शुभ है और प्रत्यंतर में बुध चल रहा है जो त्रिकोण में स्थित है। समझने की बात यह है कि प्रत्यंतर का बुध अन्तर्दशानाथ से द्वितीयस्थ है और महादशानाथ से सप्तमस्थ है कुछ कुछ ऐसा परिलक्षित हो रहा है कि दशा पूर्ण सफलता नही देने वाली क्योंकि दायेश से उप दायेश का द्वितीयस्थ और सप्तमस्थ होना अशुभ होता है और मारक के समान पीड़ादायक होता है। परंतु फिर भी निजी जीवन मे कोई और पीड़ा होने का अनुमान हो और राजनीति में सफलता मिल जाये ऐसा संभव है। देखे कैसे?
     श्री गांधी के जन्म पत्र में चतुर्थ भाव मे स्थित शनि की दशा का होना उनकी माता के स्वास्थ्य को लेकर कुछ परेशानी ला सकता है। परंतु चुनाव के लिए कुछ और कहने से पहले हमे एक और पक्ष का विश्लेषण करना होगा
            
                 
       अब गुजरात की राजनीति के नए खिलाड़ी जो चुनाव में महत्वपूर्ण स्थान रखते है कि बात करते है जो पटेल समुदाय और युवावर्ग में खासे लोकप्रिय हैं।
   
Gujarat chunav me kya patel vote ekjut ho payenge?
     
Gujarat money in election

      श्री हार्दिकपटेल सिंह लग्न में जन्मे हैं और अग्नितत्व का ग्रह जो भाग्येश और सुखेश होकर लग्न में बैठ कर चतुर्थ, सप्तम और अष्टम को पूर्ण दृष्टि से देख रहा है। शुक्र स्वराशि के होकर पंचमहापुरुष योग में से एक मालव्य योग की सृष्टि कर रहे हैं और एक अन्य पंचमहापुरुष योग का निर्माण शनि देव  शश योग के रूप में सप्तम भाव मे कुम्भ राशि मे कर रहे है दोनों योग प्रसिद्ध राजयोग हैं जो सफलता और प्रसिद्धि दायक योग हैं। चतुर्थ भाव मे राहु का होना श्री हार्दिकपटेल को निडर बनाता है और अमावस्या का चंद्रमा अस्त होकर भी विपरीत राजयोग बनाता है। एकादश भाव मे स्वराशि का बुध जो धनेश होकर पंचम को दृष्टिपात करता है और पंचमेश गुरु का धनभाव में होना भी शुभ है।
      प्रस्तुत कुंडली मे चन्द्रमा अस्त है बुध भी अस्त है साथ ही वक्री भी है जो श्री पटेल को निजी जीवन मे बहुत परेशानियां दे सकता है मन का स्वामी चन्द्रमा का कमजोर होना श्री पटेल को निर्णय लेने में कुछ असहाय बना सकता है अभी कुंडली पर ज्यादा प्रभाव मंगल और शनि का है परंतु चन्द्रमा कमजोर कड़ी साबित हो सकता है। शनि भी भाग्य भवन और चतुर्थ भाव को वक्र दृष्टि से देख रहे है जो कुछ कुछ राजनीति में श्री पटेल को धकेल रहे है । राहु चतुर्थ में नीच का प्रभाव लिए हुए है अतः श्री पटेल का राजनीतिक जीवन निम्न स्तर के मुद्दों जैसे आरक्षण आदि पर ही अवलंबित रहने वाला है कोई भारी राजनीति शायद वे न कर पाएं। परन्तु वर्तमान में हम महादशा को देखें तो पाते है कि नीचस्थ केतु की महादशा चल रही है लेकिन नीच भंग हो चुका है अतः महादशा शुभ है अभी अंतर्दशा चन्द्रमा की है परन्तु परिणाम आने तक 18 दिसम्बर तक अन्तर्दशा मंगल की आ जायेगी जो शुभ परिणाम ही लाएगी हार्दिक के ग्रह अनुकूलहैं और वो खुद चुनाव लड़े तो जीत भी जाएंगे।
   अब निष्कर्ष के तौर पर क्या कहा जा सकता है? देखिए तीनो नेताओ के जन्म पत्र का विश्लेषण करने के पश्चात ऐसा लगता है कि हार्दिकपटेल जिस तरफ होंगे विजयश्री वहीं होगी। परंतु कांग्रेस पार्टी के परिणाम सकारात्मक होंगे इतना नही कहा जा सकता, तो फिर ऐसा कहा जा सकता है कि श्री पटेल अपने स्वतंत्र उम्मीदवार मैदान में उतार दें और चुनाव पश्चात किंगमेकर की भूमिका में आ जाये। या फिर हार्दिकपटेल के विधायक विपक्ष में भी रहे तो भी बनने वाली सरकार पर हार्दिकपटेल का प्रभाव रहने वाला है और ऐसा अनुमान है कि श्री पटेल जरूर कुछ रणनीतिक निर्णय ले रहे हैं और दोनों प्रमुख पार्टियों को अपनी शर्त पर मजबूर कर ही लेंगे। यदि चुनाव परिणाम इस ज्योतिषीय विश्लेषण से 5%+/- रहते हैं तो भाजपा की ही सरकार बनने वाली है। परंतु पटेल समुदाय से चुनाव पूर्व कोइ न कोई समझौता अंदर खाते करना होगा।

Wednesday, October 4, 2017

Devotee Mode


     
Living in devotee mode: disciplined and focused
               The only way to live a (Human) life, is to live a successful life. success means that with all kinds of success in worldly activities, there is also the satisfaction of being born with success in the mind and there is no complaint from life. Apart from this, living a life is not living  a human life, that life can be called the life of an animal or a machine.            
           Read somewhere an article from a Western thinker in which the method and importance of achieving success from the life of a Monk has been told.  Reading  that article ,I got remembered  that it is one of the two ways of living life which is already present in Indian philosophy, and that is called the Knowledge Path. Now the second way is the devotional path, and the entire center of our essay is that devotee mode.
             devotee mode is not the case of  fighting life, but accepting life is the method of  devotee living. Here you are not the devotee of any human being or organization, but you have to become a devotee of  the thought that can make you successful, and achieve the best position in every sphere of  life. Now you should come to take this decision that what is right and what is wrong? Everybody makes a difference in right wrong, But over time, they change the criteria of right and wrong for their immediate benefit. . But long-term and true success can be found only by following the right idea.
     To be successful and to be in devotee mode , you need to be positive and  need to have positive attitude with life. You have to make an idea to be your master  and all its orders must be obeyed;  that can take you to the top of the world.

                        Steps of devotee Mode
            devotee Mode has nine stages, those who follow completely, their master thought will give them all its strength, and with that power you reach your goal in a limited time. But the determination must be firmly established.
These nine steps are called "Navdha Bhakti " (the nine fold devotion).
       'shravanam keertanm vishno smaranm pad sarvanam        Archanm vandanam dasyam sakhyam aatm nivedanam'
Means listening , reciting , reminds lord's divine name and acts  with serve to lord's feet , worshiping him , bow and praise his divine acts, befriend with lord , obey lord's order like a slave and ultimately total surender to lord's will.
       Listen, read and see: Self-Study is very important for your thoughts, and reading columns in newspapers or on the Internet in the book about your master thought, watching debate on TV or talking and listening to any discussion is very important. practice makes you wise.


            Lectures and Discussions by these tools knowledge can be shared by a curious person or community. Through this process the question series starts and by the debate knowledge increases.
We knows that knowledge grows when shared.


     Recollection: If you forget your goal then you will not be able to reach any destination. So do not forget your thoughts like a devotee and wait, keep your thoughts in memory. A mistake can make you unsuccessful.


      Phased process:   There is no doubt that success is achieved by adopting a phased process. To make your thoughts successful with patience, place each stage of it, your thoughts will develop phased and success will be decided. Remember, Things are not done overnight, there is a continuous process behind them.

        Serve anyone and see who is served by you is almost likely to become yours. See, Service is meant to provide facilities to whom you are serving . And if you want to move forward your thoughts conveniently, then for that idea you have to sacrifice your own happiness.
Sacrifice your comfort for your thoughts to get success.

              Praise:  To appreciate someone you need to know his qualities. So what are the worthwhile qualities in your thoughts, appreciate these worthwhile qualities in lectures and discussions. The reason for this is that the human mind wanders from the work of intellect. so to focus, keep faith for your thoughts in heart.
    
        
        
          Accept slavery of  the thought which is the key to your success. You will obey every order of whom you are slave and your master will also have the duty to fulfill the need of slave. Therefore, it is important for success to become a slave of good and better thought than becoming a slave of money and sex.

       Become best friend of your thoughts:   Increase the idea with the whole thing, because the way we share our every happiness, success and sadness with our dear friends, in the same way, connect your every thing with your thoughts and see how the combination of thoughts and actions will be positive, which is a big step to success. Someone has rightly told that Successful people makes their acts and ideas joint.



  
Self-submission:  All the eight steps above come in self-submission; together with all thoughts, resources and time, investing completely in one thought is self-submission. Offer everything for one thought and  Nowhere other than that idea, allow its energy to be wasted,  is such a task that  will bring success to you personally. The right use your time  is a guarantee of success, then it is impossible that  the utilization of all the resources will keep you behind Saying in simple words, self-submission is, focusing on a meaningful task and removing its energy from redundant works and avoiding wastage.

भक्ति  विधा में जीवन यापन: अनुशासित और  केंद्रित 
मनुष्य जीवन जीने की एक ही विधि है और वो है सफलतापूर्वक पूर्वक जीवन जीना, सफलता से आशय है सांसारिक कार्यो में सभी प्रकार की सफलता के साथ मन मे भी सफलता से उत्पन्न संतुष्ट भाव का होना और जीवन से कोई शिकायत नही होना। इसके अलावा जीवन जीना मनुष्य जीवन जीना नही है वह जीवन तो पशु का या किसी यंत्र का जीवन कहा जा सकता है।
                 कही किसी पश्चिमी विचारक का एक लेख पढ़ा जिसमे सन्यासी विधा के जीवन से सफलता प्राप्त करने का तरीका और महत्व बताया गया है। लेख पढ़ा तो अनुस्मरण हो आया कि यह तो जीवन जीने के दो तरीको में से एक है जो भारतीय दर्शन में पहले से उपस्थित है, और वही ज्ञान मार्ग कहलाता है। अब दूसरा तरीका है भक्ति मार्ग, और हमारे निबंध का पूरा केंद्र यही भक्ति विधा है।
             भक्ति विधा जीवन से लड़ कर नही अपितु जीवन को स्वीकार करके जीने की विधि है। यहां आपको किसी मनुष्य या संगठन का भक्त  नही अपितु भक्त बनना है उस विचार का जिस से आप सफल हो सकते हैं, और जीवन के हर क्षेत्र में उत्तम स्थिति को प्राप्त हो सकते हैं। अब यह निर्णय आप को लेना आना चाहिए कि क्या सही है और क्या गलत? सब लोग सही गलत में फर्क तो कर लेते हैं लेकिन समय के साथ अपने तात्कालिक लाभ के लिए सही और गलत का मापदंड बदल देते हैं। परन्तु दीर्घकालिक और सच्ची सफलता केवल सही विचार का अनुसरण कर के ही पायी जा सकती है।
      सफलता प्राप्ति के लिए भक्ति विधा में रहने के लिए जीवन के साथ एक स्वीकारात्मक और सकारात्मक सोच रखनी होगी, एक विचार जो आपको सफलता के उच्चतम शिखर तक पहुंचा सके ऐसे विचार को अपना स्वामी बनाना होगा और उसके सारे आदेश मानने होंगे ।
                             भक्ति विधा के चरण
             भक्ति विधा के 9 चरण हैं, जिनको पूर्ण रूप से पालन करें तो आपका स्वामी विचार अपनी सारी शक्ति आपको दे देगा, और उस शक्ति से आप अपने लक्ष्य तक एक सीमित समय में पहुंच जाओगे। लेकिन निश्चय दृढ़ होना चाहिए। इन्ही नौ चरणों को नवधा भक्ति कहा गया है।
  श्रवणं कीर्तनम विष्णो स्मरणं पाद सेवनं
  अर्चनम वंदनम दास्यम सख्यम आत्म निवेदनं

सुनो, पढ़ो और देखो अपने विचार के लिए स्वाध्याय बहुत आवश्यक है , और अपने स्वामी विचार के बारे में किताबों में समाचार पत्रों में या इंटरनेट पर स्तम्भ पढ़ना, टीवी पर समाचार या कोई वृत्त और बहस को देखना और सुनना यह सब अपने ज्ञान को बढ़ाने के लिए बहुत जरूरी है। अभ्यास आपको ज्ञानी बनाता है
व्याख्यान और चर्चा दो ऐसे कार्य है जिनके द्वारा जिज्ञासु व्यक्ति या समुदाय से ज्ञान बांटा जा सकता है। इस प्रक्रिया से प्रश्न श्रृंखला शुरू होती है और समाधान के द्वारा ज्ञान का दायरा बढ़ता है। सही कहा है ज्ञान बांटने से बढ़ता है
अनुस्मरण यदि आप अपने लक्ष्य को भूल गए तो किसी मंज़िल तक नही पहुंच पाओगे। अतः एक भक्त की भांति अपने विचार को न भूलें और प्रतिक्षण अपने विचार को स्मृति में रखें। एक भूल आपको असफल बना सकती है
चरणबद्ध प्रक्रिया को अपना कर सफलता मिलती है इसमें कोई संदेह नही है। धैर्य के साथ अपने विचार को सफल बनाने के लिए उसके प्रत्येक चरण को स्थान दें , आपके विचार का चरणबद्ध विकास होगा और सफलता निश्चित मिलेगी। याद रक्खे चीज़ें रातोंरात नही हो जाती उनके पीछे एक सतत प्रक्रिया होती है
सेवा करें देखें जिस किसी की आप सेवा करेंगे लगभग संभावना होती है कि वो आपके वश हो जाये। देखें, सेवा से अर्थ सेवित को सुविधा उपलब्ध करवाना है । और आपने अपने विचार को सुविधा पूर्वक आगे बढ़ाना है तो उस विचार के लिए स्वयं के सुख का त्याग करना होगा अपने विचार के लिए त्याग करें , सफलता जरूर मिलेगी
श्रद्धापूर्वक प्रशंसा किसी की प्रशंसा करने के लिए आपको उसके गुणों का पता होना चाहिए, अतः अपने विचार में जो जो सार्थक गुण हैं उन गुणों की प्रंशसा अपने व्याख्यानों और चर्चाओं के साथ अपने मन में भी करनी  है । इसका कारण है कि मानव मन का ध्यान कम महत्व बुद्धि के कार्य से भटक जाता है अतः ध्यान केंद्रित करने के लिए हृदय में विचार के प्रति श्रद्धा रखे
दासत्व स्वीकारे अपने उस विचार का जो आपकी सफलता की कुंजी है । आप जिसके दास होंगे उसके हर आदेश को मानेंगे और आपके स्वामी का भी कर्तव्य हो जाएगा कि वो दास की जरूरत पूरी करे। अतः सफलता के लिए जरूरी है कि अर्थ और काम के दास बनने से बेहतर किसी अच्छे विचार का दास बनना है
सख्य भाव से विचार को बढ़ाएं, कारण जिस तरह हम अपनी हर खुशी , सफलता और दुख को अपने परममित्र से साझा करते है उसी तरह अपनी हर बात को अपने विचार से जोड़े और देखें विचार और कार्य का संयोजन किस तरह सकारात्मक हो जाएगा जो कि आपकी सफलता के लिए बड़ा कदम है। किसी ने सही कहा है सफल व्यक्ति अपनी आदतों और विचार को संयुक्त बना लेते हैं।
आत्मनिवेदन में उपरोक्त सारे आठ चरण आ जाते हैं साथ ही अपने सारे ध्यान, संसाधनों और समय का एक विचार में पूर्णरूपेण निवेश करना ही आत्मनिवेदन है अपना सब कुछ एक विचार के लिए अर्पण कर देना और उस विचार के अतिरिक्त कही भी अपनी ऊर्जा का अपव्यय नही होने देना ऐसा कार्य है जिससे सफलता खुद आपके पास आएगी। अपने समय का सही उपयोग का संकल्प ही सफलता की गारंटी है तो फिर समस्त संसाधनों का सदुपयोग आपको पीछे रहने देगा यह बात असम्भव है। सरल शब्दों में कहें आत्मनिवेदन अपनी ऊर्जा को निरर्थक कार्यो से हटा के एक सार्थक कार्य पर केंद्रित कर अपव्यय से बचाना है 


Saturday, September 23, 2017

भारतीय ज्योतिष Indian Astrology




ज्योतिष शास्त्र : सामान्य परिचय
ज्योतिष का नाम सुनते ही हमारे ध्यान में एक पुराने से लाल कपड़े में बंधे पंचांग लिए कोई वयोवृद्ध पंडित जी जो अधिकतर ब्राह्मण समुदाय से संबंध रखते है और न सिर्फ भविष्य दर्शन कराते है अपितु, पौराणिक कथाओं के वाचन और धार्मिक रीति रिवाजों के मूहुर्त बताने के साथ ही पुरोहित के रूप में उन रीतियों, अनुष्ठानों को सम्पन्न भी बनाते हैं का स्मरण हो आता है। वैसे पिछले 20-25 साल से ज्योतिष जाति विशेष से निकल कर सामान्य जन समुदाय के ज्योतिषियों द्वारा भी समृद्ध किया  जाने लगा है और अब अधुनातन ज्योतिषी वातानुकूलित कक्षो में लैपटॉप आदि से भविष्य बताने लगे हैं। कुल मिला कर जनता को ज्योतिष की आवश्यकता है और आज के वातावरण के अनुकूल इस विद्या का बड़े स्तर पर व्यवसायीकरण हो चुका है । युवा वर्ग ज्योतिष के बारे में जानने को उत्सुक है। उत्सुकता प्रारम्भ होती है स्वयम का जन्म पत्र कैसा है इस बारे मे और फिर जब किसी विज्ञ दैवज्ञ के पास हम जाते है उनकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर इस ज्ञान के लिए और जिज्ञासा बढ़ जाती है। साथ ही आजीविका के लिए भी लोग इस ज्ञान की तरफ आकर्षित हो रहे है।



    अब प्रश्न यही होता है कि ज्योतिष शास्त्र के अध्ययन के लिए क्या किया जाए? सौभाग्य से भारतवर्ष में ज्योतिष कई विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है औरभी बहुत से निजी संस्थान है जो ज्योतिष सीखने में सहायता करते हैं। कोई भी वँहा से ज्योतिष सीख सकता है। और अधिक से अधिक अनुभव को बढ़ा कर विद्या में निष्णात हो सकता है।क्योंकि ज्योतिष एक वेदांग है (वेदांग: चारो वेदों के ज्ञान को समझने के लिए छः वेदांग निश्चित किये गए है जो कि क्रमशः शिक्षा, ज्योतिष, छंद, व्याकरण, निरुक्त और कल्प हैं) और इतने प्राचीन ज्ञान को प्राप्त करने के लिए हमें उस ज्ञान के योग्य बनना होगा । यदि हम इस ज्ञान के पात्र बने बिना इस ज्योतिष शास्त्र का अध्ययन और उपयोग करने लगे तो स्वयम और अन्य जीवों का अहित ही करेंगे, यह बंदर के हाथ उस्तरा देने के समान हो जाएगा।
ज्योतिष शास्त्र में लगभग सभी शास्त्रों का समावेश है

         यदि यह कहा जाए कि ज्योतिष शास्त्र में सभी शास्त्रो का निचोड़ है तो अतिशयोक्ति नही होगी, अपितु यही सत्य है। आदि काल से मनुष्य आकाश की और निहारता रहा है विभिन्न संस्कृतियों में सूर्य, चंद्रमा और तारागणों आदि को लेकर कथाये कही और सुनी जाती है। इन आकाशीय पिंडों का मानव जीवन पर हर क्षण प्रभाव रहता है । सूर्य से दिन रात और चंद्रमा से ज्वार भाटा के कारण हर जीवित प्राणी प्रभावित होता है। ज्योतिष शास्त्र के लिए आवश्यक गणना के लिए रेखागणित, बीजगणित, त्रिकोणमिति, सांख्यिकी, भूगोल विज्ञान , अंतरिक्ष विज्ञान, दर्शनशास्त्र, इतिहास, शरीर विज्ञान, भौतिकी, भाषाविज्ञान और आधुनिक काल में तो कम्प्यूटर विज्ञान भी अनिवार्य रूप से आवश्यक होता है। और यदि कहा जाए कि कोई ज्योतिषी पूर्ण रूपेण ज्योतिष को जान पाया है तब ये बात बहुत असंभव सी ही होगी क्योंकि इतना विशद ज्ञान जो सभी तरह के ज्ञान का समावेश है को एक ही व्यक्ति को अपने जीवन काल मे प्राप्त करना और उसका विद्वान बन जाना अत्यंत दुष्कर ही प्रतीत होता है। हम सिर्फ ज्योतिष शास्त्र के आजीवन साधक ही रह सकते है, ज्योतिष शास्त्र को सीखना एक सतत प्रक्रिया है। जितना सीखे उतना ही कम लगता है। और यही कारण है कि आधुनिक काल मे बड़े बड़े नाम ऐसे भी आये है जिन्होंने ज्योतिष में नए अन्वेषण किये और विधि का दर्शन करवाया। कृष्णमूर्ती, के.ऐन. राव, बापूदेव शास्त्री, और पंडित विष्णुकांत झा ऐसे धुरंधर ज्योतिषी रहे है जिन्होंने ज्योतिष की सच्ची सेवा की है और नए सिद्धांत ज्योतिष की रचना की है।
    

  भारत देश के बड़े बड़े वैज्ञानिक, आयुर्वेद चिकित्सक, अन्वेषणकर्ता इतिहासकार और राजनीतिज्ञ ज्योतिष शास्त्र को जानने वाले रहे है और उनकी मुख्य उपलब्धियों में ज्योतिष ज्ञान का बड़ा योगदान रहा है।
  ज्योतिष को वेदानां चक्षु मतलब वेद के ज्ञान का दिग्दर्शन कराने वाले नेत्र कहा गया है। और वेद केवल धार्मिक ग्रंथ नही है गणित विज्ञान और भुगोल जैसे कई विषय ज्ञान के लिए मानव जाति वेदों की ऋणी है। और ज्योतिष उसी वेद विद्या का मुख्य अंग है
    यथा शिखा मयूराणां,  नागानां मणयो यथा

    तद्वेदांग शास्त्राणां  ज्योतिषं  शास्त्रमुत्तमम
जिस प्रकार नाग की मणि और मयूर पक्षी की कलगी सब अंगों में सबसे ऊपर अर्थात सिर  धारण की जाती है उसी तरह षड वेदांग में ज्योतिष शास्त्र सर्वोपरि है। (सूर्यसिद्धांत )
ज्योतिष कला है अथवा विज्ञान
?
ज्योतिष विद्या के बारे में जन समुदाय के मन मे एक भारी दुविधा है, भारतीय परम्पराओं में अटूट विश्वास रखने वाले सामान्य जन ज्योतिष को बिना किसी पड़ताल के विज्ञान  कह सकते हैं परंतु ज्योतिष शास्त्र के सच्चे साधक हमेशा यही चाहते हैं कि ज्योतिष आस्था का विषय नही होना चाहिए, ज्योतिष भी विज्ञान की अन्य विधाओं की भांति तर्क और प्रयोग की कसौटी से परख कर सिद्धांत का प्रतिपादन करे। परंतु यह भी सत्य है कि ज्योतिष को कैसे किसी और सिद्धांत से प्रमाणित किया जाए? जो भी हो तर्क से ज्योतिष सिद्धांत को समझ सकना ज्यादा उपयुक्त होता है ।    वस्तुतः फलित ज्योतिष में बहुत ही निष्णात ज्योतिषी ही प्रयोग कर के बतला सकते है। इसका क्या अर्थ हुआ? देखे तो सीधा सीधा समझ मे आता है कि ज्योतिष को समझ कर उसका सदुपयोग करना बहुत साधना का काम है । और ज्योतिष के विषय मे यही आर्य सत्य है
        "यदि कुछ त्रुटि है तो ज्योतिषी की ही त्रुटि है ज्योतिष विद्या कभी गलत नही हो सकती"
          ज्योतिष को पूर्णतः विज्ञान कह देना ज्योतिष विद्या को सीमित कर देने के जैसा है , जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है कि ज्योतिष एक नही अपितु लगभग सम्पूर्ण विद्याओं का सार है तो अन्य विद्याओं की तरह ज्योतिष को एक विद्या माना जाना असंगत और अयुक्तिकर ही कहलायेगा। ज्योतिष में कला और विज्ञान दोनो का समावेश है। यह कला भी है विज्ञान भी है और ज्योतिष चक्षु होकर दर्शन भी है ।
           जब कला समृद्ध होकर अपने उच्चतम शिखर पर पहुंच जाती है तब वह स्थापित सिद्धांत बन जाती है और विज्ञान बन जाती है, और वही विज्ञान जब अपने अधिकतम सामर्थ्य के साथ अंतिम लक्ष्य पर पहुंच जाता है तब सफलता के साथ विज्ञान के सिद्धांत मानव को कला के रूप में दिख पड़ते है। कला और विज्ञान में कोई भेद नही है बस समयांतराल में या संक्रमण काल मे दोनी भिन्न दिखाई पड़ते हैं। ज्योतिष एक सिद्धांत गणित विज्ञान पर आधारित फलित के द्वारा मानव जीवन को जिस प्रकार सरल बनाती है वही कला है।
   ज्योतिष को हम क्यों मानें?
            ज्योतिष कला हो विज्ञान हो या कोई दर्शन हो सामान्य जन को क्या आ पड़ी कि वो ज्योतिष को माने? बहुत ही तर्क संगत प्रश्न है, और प्रत्येक मनुष्य को इस प्रश्न के पीछे का मंतव्य समझना चाहिए। ज्योतिष जिस प्रकार व्यापार बन चुका है और विभिन्न योग दोष का भय दिखा कर जो धनार्जन का व्यवसाय चल रहा है वही असल कारण है कि हम ऐसा प्रश्न करते हैं। परंतु हम को इतना ही समझना है कि यदि डॉक्टर बीमारी का सही निदान न करके अन्य उपचार कर देता है और रोगी को हुई हानि का उत्तरदायी डॉक्टर ही होगा, चिकित्साशास्त्र को दोषी नही सिद्ध किया जा सकता है। अतः ज्योतिषी को अपनी जिम्मेदारी समझ कर आगंतुक को परामर्श करना चाहिए ।
      अब प्रश्न का उत्तर भी मिलना चाहिए, कि ज्योतिष को क्यों मानें? तो प्रत्युत्तर यह होगा कि ज्योतिष को क्यों न मानें? देखे हम अपने सारे उत्सव को मनाते हैं स्कूलों दफ्तरों का समय ऋतु बदलने पर बदल डालते हैं क्यों? वो इसलिए कि हम एक कलेंडर का पालन करते हैं, जिसके अनुसार उत्सव चाहे धार्मिक हो या सरकारी मनाने का प्रचलन होता है। अब हिन्दू मत के उत्सव को छोड़ भी दें तो नववर्ष को किस कारण मनाया जाता है? सभी लोग बोल देंगे कि नया साल शुरू होने के कारण नव वर्ष मानते है। अब प्रश्न यह होगा कि नववर्ष का वैज्ञानिक कारण क्या है? उत्तर होगा कि धरती के सूर्य के परिभ्रमण का एक वृत्त 365 दिन में पूरा हुआ अतः नववर्ष को मानना पड़ेगा। पर प्रश्न तो यह है कि एक गोलाकार परिभ्रमण पथ पर कहां से प्रारंभ माना जाए ? इसका कोई जवाब नही है।  कोई जवाब हो भी नही सकता वैज्ञानिक इस बात को जानते है कि पृथ्वी सूर्य के परिभ्रमण में जो समय लगाती है वह स्थिर नही है जिस अयन पर पृथ्वी का परिभ्रमण है वह भी बदलता रहता है। इसी कारण प्राचीन ज्योतिष विज्ञानियों ने नक्षत्र मंडल को आधार मान कर ज्योतिष शास्त्र की रचना की है, मात्र सूर्य या मात्र चंद्रमा की गति से नही । आज भी दीपावली कार्तिक मास की अमावस्या को ही आती है और  श्रीकृष्णजन्माष्टमी रोहिणी नक्षत्र पर ही आती है। मुस्लिम मुहर्रम का महीना तीन साल में सर्दी गर्मी और बरसात तीनो ऋतुओं में घूम जाता है। जीसस का जन्म दिवस मार्च में होता हुआ दिसंबर तक दस महीने के वर्ष से होता हुआ बारह माह के ईसवी वर्ष तक कैसे पहुंच गया किसी को शायद पता भी नही। यदि कोई ज्योतिष को द्वेष से और घृणा की वजह से नही मानता है तो उसे कोई भी उत्सव जो ज्योतिषीय पंचांग पर आधारित है नही मनाने चाहिए और अपने कार्यालय खुले रख कर काम करना चाहिए। जन्मदिन का उत्सव भी नही मनाना चाहिए क्योंकि सौर वर्ष भी शुद्धतम नही है। और तो और बहुत से लोगो को यह पूंछते हुए भी देखा है कि "आप ज्योतिष में मानते है क्या?" उत्तर में यही सूझता है कि श्रीमान ज्योतिष कोई भूत है क्या? ज्योतिष एक विज्ञान है यह कोई भूत प्रेत नही है कि जिसको न मानने से जीवन पर कोई प्रभाव न पड़े।ज्योतिष में नवीन वेध और शोध की बहुत आवश्यकता है। अधिक से अधिक वेधन और शोधन से ही ज्योतिष का वैभव सामने आ पायेगा।







Monday, August 21, 2017

मुनि संकटसागर का निष्फल भाष्य

               मुनि संकटसागर कृत निष्फल                                    स्तोत्र टीका 
                     निष्फल भाष्य
      गोपालः ऋषि के मुख पंकज से निकले मूर्खः वाक्यो जो कि एक छंदबद्ध ज्ञान सरिता के रूप में मुनि संकटसागर यानी मुझ मूढ़ के हृदयतल को आंदोलित और विडोलित करते हैं बहुत ही आत्मकल्याण का कारण हैं। धन्य है गोपाल ऋषि और यती आशुतोष जिनका संवाद सम्पूर्ण मानव जाति को मूर्खोपदेश प्राप्ति का कारण बना और मूर्खताः के आंनद सागर में गोते लगाने वाले मण्डू ऋषि की भी वंदना करने का ही मेरा अभिप्राय है।
      मुनिवर संकटसागर के इन वचनों को सुन कर शिष्यगण के मन मे जिज्ञासा का प्रादुर्भाव हुआ, और सारे शिष्यगण की और से बटुक डब्बाचारी ने प्रश्न किया,
"हे, प्रभो! आप समस्त लोको का विचरण अपने स्वतंत्रता रूपी वाहन पर अनवरत करते रहते हो और एक स्थान पर अढाई घटी से ज्यादा रुकते नही हो। और हमको भी आप शिक्षा चलते फिरते ही दे पाते हो, इतना गंभीर ज्ञान आप कैसे और कहां प्राप्त कर पाए हो? प्रभो! ये ऋषि गोपाल कौन हैं? और यही जिज्ञासा याति आशुतोष के विषय मे भी है! साथ ही वार्ता के सूत्रधार मण्डू ऋषि के विषय मे भी शीघ्रतासे और विस्तार से बतलाने की कृपा करें।"
    आगे डब्बाचारी बोलते गए " प्रभो! आप अपने ज्ञान को ठीक उसी प्रकार हमारे जिज्ञासु हृदयों को दे सकने में समर्थ हो जिस प्रकार ताड़ पत्र पर लिखी छंदबद्ध स्तुति को कोई यंत्र प्रतिलिपि बना सकता है, अतः प्रभु शीघ्र  ही ऐसा करने की कृपा करें"
   शिष्यों के विनय से प्रसन्न होकर मुनिवर बोल पड़े " पुत्र डब्बे! बड़ा ही उचित और लोको के कल्याण के हेतु तुमने प्रश्न किया है, अतः तुम बड़े बड़भागी हो, परंतु पुत्र! मुझे शिष्य गण में एक महान विभूति के दर्शन नही हो रहे?"
  आप किसकी बात कर रहे हो भगवन? विस्मित डब्बाचारी ने प्रश्न किया
मुनिवर बोले " वत्स! इतने स्वार्थी न बनो! अपने दीर्घकाय सहपाठी को विस्मृत न करो! जाओ और पता करो मेरे परम प्रिय शिष्य शेनुराज महावीर कहाँ रह गए हैं?
इतना सुनते ही लज्जित डब्बाचारी गुरुदेव को नमन करके जाने को उद्यत हुए ही थे इतने में एक शिष्य मंगुमंगल ने उच्चस्वर में पुकारा "भ्राता डब्बा ! कहाँ जाते हो? क्या आप को इतना भी स्मरण नही कि शेनुराज अभी तपस्या करने समुद्र तट पर जहाँ मिष्ठी नदी सागर से मिलती है महामाया देवी के मंदिर में बैठे हैं? हे डब्बा भ्राता! अपने दिव्यचक्षु से शेनुराज को मुनिवर का ज्ञान इसी समय प्रसारण कर के उन्हें लाभान्वित करवाओ।
   "अति उत्तम परामर्श है वत्स! हे मंगुमंगल तुम यथेष्ठ कहते हो"  मुनिवर आगे बोले " डब्बा! संपर्क स्थापित करो।
जो आज्ञा गुरुदेव! कह कर डब्बाचारी ने शेनुराज महावीर से संपर्क स्थापित किया और मुनिवर और शेनुराज में कुशलक्षेम वार्ता के पश्चात मुनि संकट बोले
     "सुनो वत्स डब्बे! गोपाल ऋषि का काल कोई सतयुग नही है वे बड़े ही ज्ञानी महात्मा है उनका काल अभी आधुनिक काल ही है अभी पुण्यनगर में अपने ज्ञान से वहाँ के निवासियों को तृप्त कर रहे है , और यति आशुतोष तो यही अपने ब्यावरारण्य में ही विचरण करते यदा कदा दिख ही जाते है कभी उनका दर्शन करना हो तो कचोरीफल और मिष्ठान्न का भोग साथ मे लेकर उनकी कंदरा जो कि ऋक क्षेत्र में जीवनषटचत्वारिशत पर्वत पर  अवस्थित है जा सकते हो! परंतु स्मरण रहे रिक्त मत जाना कुछ मिष्ठान्न आदि भेंट लेके ही जाना।"
           "सत्य वचन भगवन! मेरा बहुत आना जाना है यति आशुतोष के यहाँ, बड़े ही दयालु हैं, यति आशुतोष तो स्वयं ऋक क्षेत्र से चल कर भक्तो के घर जा के मिष्टान्न ग्रहण करने की कृपा कर देते हैं, उनका उदर दिखता तो लघु है परंतु यति एक वृषभ कि भांति भोजन करने की क्षमता रखते है " शेनुराज महावीर ने भरी सभा मे हर्ष के साथ कहा।
         मुनि संकट बोले" साधु!साधु! शेनुराज तुमको बहुत ज्ञान है तुम तो भ्रमणशील हो  अतः ज्ञानी हो परंतु तुम्हारा गुरुभाई डब्बाचारी भोला है ये भी ऋक क्षेत्र ही में निवास करता है परंतु पूर्णगिरी और मदनगिरी पर्वतों से आगे कभी गया नही है। परन्तु इसे आज यति आशुतोष की महिमा का बोध हो गया है! क्यों वत्स डब्बे?"
      जी गुरुदेव  बोल कर डब्बाचारी गगन में निहारने लगे और मुनि संकट आगे बोले" ऋषि मंडू तो एक तुच्छ से फुदकने वाले मेंढक ही थे परंतु पूर्व जन्म में पुण्यकृत संचय इस जन्म में गोपालाषु संवाद के साक्षी बने और स्वयं परमपिता ब्रम्हा ने उन्हें ऋषि मंडू की संज्ञा प्रदान की और एक सहस्त्र पुत्रो का वरदान दिया। संवत संवत २०७४ भाद्रप्रदा कृष्ण पंचमी को सांय काल जब मण्डू ऋषि कीटभक्षण को उद्यत हुए ही थे तभी गोपालाशु संवाद प्रारंभ हुआ और मण्डू ऋषि निर्निमेष से देखते गए और सुनते गए।
    याति आशुतोष ने मित्र गोपाल ऋषि से अधिकार पूर्वक कहा "हे मित्र! गोपला मित्र!(यहाँ प्रेमपूर्वक संबोधित किया गया है जैसे मुनि संकटसागर को संक्या, शेनुराज महावीर को ढेबा और मंगुमंगल को मांग्यो करके मित्रगण कह देते है ) मेरा जीवन अभी निःरस हो गया है समय के अतिरिक्त और कुछ प्रचुर मात्रा में ऐसा मेरे स्वामित्व में नही है जिसे उपभोग किया जा सके मुझ अकिंचन के पास यही समय प्रचुर मात्रा में है और इसे व्यतीत करने के लिए कोई निष्फल सी वार्ता ही कर दो।"
      तो  शिष्यों! ये परिचय आदि हो चुका अब निष्फल स्तोत्र की टीका से पूर्व इस स्तोत्र का स्मरण कर लेते है"
                                  ऋषि मण्डू उवाचः
             इदं अहम प्रवक्ष्यामि मूर्खम       ज्ञानमतिदुर्लभम
            ब्यवरारण्य राजस्थाने      गोपालऋषि     निर्झरी ||१||
     
            ब्यावरारण्ये  पुण्यतिथौ भाद्रपद  कृष्ण- पञ्चमी|
           सांध्य काले  विक्रमार्के   विशन्तिचतुःसप्ततिताम ||२||
            ओमपुत्र आशुतोष च दिनेशात्मज   गोपा  ऋषि |
            विनोद चर्या   च  प्रहसनं   अकुर्वताम मित्रद्वय  ||३||
                               ।। आशु उवाचः।।
              भो मित्र ! गोपला मित्र!   मम जीवन गतः निःरस ||
              प्रचुर समय व्यतीतार्थे      करोतु   वार्ता    निष्फल||४||
                                 ।। गोपाल उवाचः।।
               श्रणु आशु महामूर्ख:       उपदेशं परमं सरल||
               मर्त्यलोके  मूर्खज्ञाति भीषणम प्रचंडं प्रबल ||५||
              युगे युगे  मूर्खलीला          फलितं मूर्खणांगति||
             कल्पादौर्महादैत्यैर्मनुष्याणाम         च संप्रतिः||६||
        
             प्रथमं प्रबल मूर्खश्च       द्वितीयं    प्रचंडस्तदा||
            तृतीयं  भीषणम मूर्खः   संज्ञा वदति  शारदा ||७||
            क्रमशर्चरितमूर्खमपारमथकं  चान्योन्य इति||
           मूर्खणांप्रकृतिर्क्रमशर्तामसराजस च सात्विकी||८||
            खण्ड मूर्ख प्रबल जाति क्लान्तर्भवति  क्षिप्रता||
            वयसि प्रथम चतुर्थान्शे प्रबलं त्यजति  मूर्खताः||९||
            आत्मसमर्पणम कृत्वा  तु   विधाने  प्रकृतिरपरः||
            वा तपस्यैव प्रबल याति प्रचंडं         परिवर्तिताः||१०||
          अखण्ड मूर्ख प्रचंडेति          वर्धन्ते  इव जन्मना||
           परिवर्तते  इदम  जन्मे     नष्टम भवति    अन्यथा||११||
          वयसि अंत चतुर्थान्शे   प्रचंडं          तु परीक्षिता||
          पृकृते समर्पणम कृत्वा   अथवा   भवति  भीषणाः||१२||
          शस्पभोजी द्वाविमौ मूर्खः  सम  वृषभः च गर्दभः||
          भवाटवी ते विचारन्ते   अनन्तकालेति  नान्यथा||१३||
       
         परिपूर्णः भीषणम मूर्खः लभ्यते क्षिप्र कैवल्यम||
         दुर्लभं  अतिदुर्लभम         भीषणम सम मूर्खताः||१४||
       
        भीषणं क्रियते कर्मं         विरुद्धं प्रकृतिर्विधि||
         ईशकृपा गतं।   मुक्तवा  चक्राणि जराजन्मना||१५||
         तपः कर्मे लब्ध भीषण  कर्तव्ये इति प्रति नरः||
         मनुज देह देवदुर्लभ  भो आशु! भव सत्वरः ||१६||
                   
                             ।।आशु उवाचः।।
           मूर्खः मूर्खः महामूर्खः  गोपालः तव  महाकृपा||
          कृतार्थोहं  मूर्खताः लब्ध्वा वाणी तव मुक्तिदा||१७||
                              ।। ऋषि मण्डू उवाचः।।
         इति संवादे गोपालाशु   भोजनम     अकुर्वतां||
         कीट भक्ष्वा अहं गत्वा तु   जलगर्त    क्षिप्रताम||१८||
( इति महामूर्ख तन्त्रे गोपालाशु सम्वादे द्वादशार निष्फल स्तोत्रम)
     
मुनि संकट सागर बोले कलियुग में प्रचुर समय व्यतीत करने में ये स्तोत्र यति आशुतोष के लिए जिस प्रकार प्रभावी हुआ वह धन्य घटनाक्रम है।
डब्बाचारी ने प्रश्न किया "हे स्वयं संकट से लिप्त होकर भी दूसरे जीवो को संकट में पहुँचाने में समर्थ मेरे भगवन! अब मेरा चित्त गोपालाशु संवाद सुन ने के लिए अधीर हो रहा है। प्रभो मेरा समय व्यतीत नही हो रहा एक कला भी अहोरात्र की भांति लग रही है, हे भक्तवत्सल! क्षिप्रता से आगे का बताईये"
         मुनि संकटसागर बोले" डब्बे अपने चित्त को एकाग्र करके सुन कि ऋषि गोपाल और यति आशुतोष दोनों ही परम मित्र हैं अतः दोनों की परस्पर वार्ता मिथ्या नही हो सकती दोनों ही ज्ञानी और विरक्त महापुरुष हैं अतः अनर्गल वार्ता का भी कोई प्रश्न नही होना चाहिए, अर्थात निष्फल स्तोत्र का ज्ञान का अधिकारी वही जीव होगा जो महात्मा आशुतोष और वैरागी गोपाल में निष्ठा रखे और साथ ही कचौर्य-समोसकादि तिक्त रस व्यंजन के साथ मोदक, दुग्ध से बनी मिष्ठान्न यथा चमचम, संदेश एवं कलाकंद आदि का भोग इन्हें चढ़ाये।यदि डब्बे तेरी श्रद्धा इन महापुरुषों में नही है तो चिंतित न हो इन विप्रजनों को प्रसन्न कर उसके पश्चात शनेः शनै इनकी मूर्खताः देख तुम्हे निश्चय हो  जाएगा और श्रद्धा बलवती हो जाएगी। इसके बाद इस ज्ञान का अधिकारी वही बन सकता है जो इस स्तोत्र का पाठ पंचम सुर में करके धन्य होगा।
          अब ध्यान से सुनो यति आशुतोष ने जब अपने मित्र से मूर्खोपदेश के लिए प्रार्थना की ठीक उसी समय गोपालः ऋषि ने अपने समस्त वेगों का मूर्खोपदेश में प्रवर्तन कर दिया। मूर्खता में निष्णात ऋषि बोले "हे आशु! सुनो यह उपदेश बड़ा ही सरल है" ध्यान देने वाली बात यह है ऋषि ने यति को महामूर्खः कहकर सम्बोधित किया है, इसका अर्थ है कि इस ज्ञान के अधिकारी होने की पहली मांग है कि जीव स्वयं के ज्ञानीपण्डित होने के मिथ्या अभिमान का त्याग कर देने का काम करे। यति ने भी महामूर्खः होने का विशेषण धारण किया जो विरले महात्माओं को ही प्राप्त होता है, इसके पश्चात ऋषि गोपालः बोले मृत्युलोक में मूर्खज्ञाति की तीन परिभाषा है अर्थात तीन प्रकार के मूर्ख होते हैं
     प्रथम है प्रबल
    द्वितीय है प्रचंड
    अंतिम है भीषण
                ( मूलपाठ में अवरोही क्रम से बताया है परंतु टीका में आरोही क्रम से पहले प्रबल तथा आगे प्रचंड आदि वर्णन किया है)
      गोपालः ऋषि कहते हैं युग युग से मूर्खता का नग्न नृत्य चल रहा है मूर्खता सृष्टि के आदि से विद्यमान है इसके लिए वे आदिदैत्यों का उद्धरण भी देते हैं सर्वविदित है मधु और कैटभ ने स्वयं अपनी मृत्यु का मार्ग आदिनारायण भगवान को बता दिया था उसके पश्चात वेदव्यास की लेखनी देव दानवो की मूर्खता वर्णन में लगी रही। भस्मासुर, रावण, कंस, जरासन्ध सभी और इन्द्रादि देवता भी सभी प्रपंच में लगे रहते थे और अधुनातन काल मे मनुष्यों को मूर्खता व्यापी हुई है लेकिन यह ध्यान देने वाली बात है कि आधुनिक मनुष्य का मूर्खता का स्तर कैसा है यही उसकी बंधन और मुक्ति का हेतु बनतtा है जिस के बारे में टीका में विस्तार से बात की जाएगी।।  [५वे एवम ६ठे श्लोक की टीका निश्चित हुई]
        फिर गोपालः ऋषि ने आरोही क्रम से मूर्खता के स्तर बतलाये हैं जिसके बारे में उन्हें स्वयं विद्यादायिनी देवी पराम्बा भगवती सरस्वती ने उपदेश दिया था। ऐसा ऋषि गोपालः श्लोक में स्पष्ट कहते है (इस वार्ता की टीका यही होगी )। फिर क्रम से बतलाया कि प्रबल मूर्ख का अपार चरित है और प्रचण्ड मूर्खः का अथक चरित है ठीक उसी प्रकार भीषण का भी चरित है परंतु वह अन्योन्य है अर्थात प्रथम दोनो स्तर की मूर्खताः भीषण में समाहित होती है, और अतिरिक्त मूर्खता का परिमाण भी भीषण में होता है यह इस श्लोक में नही बताया है परंतु यह बात आगे के श्लोको में स्पष्ट हो जाएगी । साथ ही प्रबल, प्रचण्ड और भीषण की प्रकृति भी क्रमशः तामसी , राजसी और सात्विक बताई गई है।
      मंगुमंगल ने प्रार्थनापूर्वक प्रश्न निवेदन किया " प्रभो संकट! प्रबल का चरित अपार और प्रकृति तामसी किस प्रकार है और उसी तरह प्रचंड और भीषण के चरित और प्रकृति के बारे में विस्तार से कृपा कर बताईये"
      मुनि संकट सागर बोलते है" वत्स मंगु मंगल! आगे ये वार्ता नवम श्लोक में आएगी। अभी तुम लच्छनेमि दानव के पर्वत से बहने वाली चय सरिता से चयपात्र में कुछ भर लाओ, तुम्हारे गुरू को एक स्थान पर अढाई घटी व्यतीत हो गयी है, आगे उपदेश के लिए आज्ञापालन करो यदि लच्छनेमि से युध्द में पराजित हो जाओ तो गर्वान्ध पर्वत से बिना युद्ध के मिल जाएगी वह ले आओ। जाओ शीघ्रता से जाओ और शीघ्र ही लौट आओ, और हाँ पुत्र! स्मरण रहे चयसरिता के आसपास मुखवास के गहन वनों में धूम्रदण्डिका नामक राक्षसी का निवास है उस से बच कर रहना।[७वे और ८वे श्लोक की टीका निश्चित हुई]
          उसके पश्चात लगभग ३७ पल ४०विपल व्यतीत हुए होंगे, मुनिसँकट सागर अधीर हो उठे और चल चल के समीप की समस्त भूमि को विदीर्ण कर दिया। साथ ही उस समय उन्होंने अपनी दिव्य वाणी से इंद्रप्रस्थ, हस्तिनापुर और कर्णाटक और विदर्भ आदि स्थानों को गुंजायमान कर डाला, तब जाकर मंगुमंगल लौट आये और मुनिवर को चयपात्र भर कर समर्पित किया। चयपान के पश्चात मुनि ने फिर बोलना प्रारम्भ किया।
               "जिज्ञासु शिष्यों! प्रेमपूर्वक न सही समय व्यतीत करने के अभिप्राय से ही आगे सुनो। प्रथम प्रकार के मूर्ख प्राणी खण्ड मूर्ख अर्थात अल्प मूढ़ होते है प्रायः देखने मे प्रथमद्रष्टया मूर्खः ही लगते हैं ये बहुत जल्दी प्रसन्न और उतनी ही शीघ्रता से दुखी भी हो जाते हैं। अधिकतर समय सांसारिक प्रपंचो में लगे ये मूर्खः स्वयम के बारे में कुछ प्रयत्न नही करते और न ही प्रचण्ड मूर्खः बनने के विषय ही में सोच पाते है, और गोपालः ऋषि ने प्रबल मूर्ख को शीघ्र क्लांत अर्थात थक जाने वाला बतलाया है इसका अर्थ स्वयम के मूर्खताः के विकास के संदर्भ में कहा है ( इस विषय मे सगर्भागौक्रय न्याय का उपयोग किया गया है। जिस प्रकार सगर्भा गाय के क्रय के साथ ही उसके गर्भ में पल रहे वत्स का भी क्रय हो जाता है उसी प्रकार प्रबल के क्लांत होने का विषय उसका मूर्खताः की वृद्धि का तप ही है क्योंकि प्रबल जाति के प्राणी का चरित अपार कहा गया है। अपार इस हेतु कि प्रबल सांसारिक क्रिया में इतना निमग्न रहता है कि उसका अंत नही आता प्रबल की लीला इसी तरह अनवरत चलती रहती है। प्रबल मूर्ख अपने जीवन काल के प्रथम चतुर्थान्श में ही निर्णय कर लेता है कि उसे प्रचंड मूर्ख में परिवर्तित होने की चेष्टा करनी है अथवा तो सांसारिक प्रपंच के समक्ष आत्मसमर्पण करना है। इस प्रकार कोई कोई प्रबलं मूर्ख जीवन के द्वितीय चतुर्थांश में प्रवेश के बाद प्रचंडता में दीक्षित हो पाता है। शेष सारे प्रबलं मूर्खः अपनी तामसिक प्रकृति के चलते प्रबलं मूर्खता को त्याग कर सांसारिक निद्रा में सो जाते हैं।"
        " इस प्रकार गोपालः ऋषि की प्रज्ञा से संसार मे यह बात निश्चय कही जा सकती है कि सभी मनुष्य जन्मना मूर्ख ही उत्पन्न होते है शनै शनै संसार मे उपस्थित स्पृह वायु के सेवन से मूर्खताः मन्द पड़ती जाती है और अंत मे खत्म हो जाती है। अतः मनुष्य को कर्त्तव्य है कि अपनी मूर्खता को और प्रयत्न पूर्वक बढ़ाये अन्यथा ८४लाख योनि के पश्चात ही मूर्खताः सुलभ हो पाएगी।"
      विस्मित बटुक डब्बाचारी बोले " प्रभो ! एक शंका है,। वह यह है कि यदि प्रबल मूर्खः आयुर्दाय के प्रथम चतुर्थांश ही में मूर्खः से प्रचंडता की और गतिमान हो सकने में समर्थ हो सकता है तो इस विषय मे शास्त्र की उन प्रबलं मूर्खज्ञाति के अभिभावकों को क्या आज्ञा है?"
     मुनि संकट सागर के सुदीर्घ वृत्ताकार नेत्रद्वय से जलधार बह निकली अपने आप को संयत करके वे बोले" वत्स! तुम जगत के कल्याण के लिए कितने उचित प्रश्न करके मुझ ज्ञान के सागर में से मोती ढूंढ लेते हो । धन्य हो डब्बाचारी! धन्य हो में तुमको वरदान देता हूँ कि तुम्हारे विवाह के पश्चात भी तुम बटुक ही जाने जाओगे, और सदैव ऐसे ही प्रश्न करते रहोगे।" पुनः मुनि संकटसागर बोले " पुत्र! डब्बाचारी! सुनो अभी यह स्तोत्र का प्रचार तुम्हे ही करना है। अभिभावक यदि प्रचण्ड अथवा भीषण मूर्ख है तो अपने पुत्रों को संसार की निद्रा में सोने नही देंगे और यदि ऐसा नही है तो तुम जैसे जीव जिन पर गोपालाशु संवाद की वर्षा हुई है का कर्तव्य है उन प्रबल मूर्खों को बचाएं।"
   डब्बाचारी बोले " महात्मन! आप के नेत्रों के सुदीर्घ वृत्ताकार होने का क्या कारण है ?
   मुनिवर संकट बोले"वत्स, डब्बे! यद्यपि लोक समुदाय को तुम्हारा प्रश्न अनर्गल प्रतीत हुआ है परंतु तुम्हारी जिज्ञासा के कारण लोकसमुदाय को एक दिव्य घटनाक्रम के बारे में ज्ञान के निमित्त भी तुम ही हो"
   "ऐसा कौनसा दिव्य घटनाक्रम है प्रभो!" डब्बाचारी का निवेदन हुआ। तभी सभी भागम शास्त्रो के मूल तत्व को जानने वाले परमेष्ठी मुनि संकट सागर भाव विभोर होकर बोले" वत्स! मैंने पहले यह विदित नही किया कि गोपालाशु संवाद को एक नही दो जीवों ने सुना था। प्रथम थे ऋषि मण्डू और द्वितीय में मुनि संकट सागर, और जब सृष्टिकर्ता ने ऋषि मण्डू को वरदान दिया तब मैंने परमपिता ब्रम्हाजी से याचना की 'हे सृष्टिकर्ता! वरदान मुझे भी मिले तो उचित होगा क्योंकि मैंने भी संवाद सुनने का पुण्य प्राप्त किया है'। यह सुन ब्रम्हाजी बोले वत्स! अब मंडू को दिया वरदान तो वापिस नही हो सकता परंतु जिन नेत्रों से ऋषि मंडू ने गोपालाशु के दर्शन किये वैसे ही नेत्र तुम्हें भी मिलेंगे और इस वार्ता की प्रथम टीका भी तुम ही लिखोगे और साथ ही यति आशुतोष भी तुम्हे अपना मित्र बनाएंगे। तथास्तु! ऐसा बोल कर ब्रम्हदेव अंतर्धान हो गए।
    इसके पश्चात मुनि संकट के समस्त शिष्यो ने मुनिवर की भूरि भूरि प्रशंसा की और मुनिवर से उपदेश को निरंतर रखने का निवेदन भी किया । तब मुनिवर ने पुनः विषय पर कहना आरम्भ कर दिया।
    "वत्स! आगे सुनो यह ऋषि गोपालः का वचन है कि तपस्या से प्रबलं मूर्खः प्रचंडता को प्राप्त हो सकता है (यहाँ ९वम एवम १०म श्लोक की टीका निश्चित की गयी)
     मुनि संकटसागर ने आगे बोलना प्रारम्भ किया " अब आगे द्वितीय श्रेणी के मूर्ख प्रचण्ड का वर्णन ऋषि गोपाल ने किया है। यह मूर्खज्ञाति अखंड मूर्खता से सज्ज होती है, अखंडता इस प्रयोजन से क्योंकि ऋषि ने प्रचण्ड मूर्ख की उत्पत्ति के विषय मे एक सिद्धांत का प्रमाण नवम और दशम श्लोक में दे दिया है, कि प्रबल स्तर से प्रचण्ड मूर्खता के स्तर में किस भांति प्रवेश किया जा सकता है। और दूसरा सिद्धांत ऋषि एकादश श्लोक में बताया है कि प्रचण्ड मूर्ख जन्म से भी ये गुण लिए उत्पत्ति को प्राप्त होते हैं।"
  "किन्तु प्रभो आप ने तो पूर्व में बताया कि सभी जीव जन्मना प्रबलं मूर्ख होते हैं?" डब्बाचारी ने आकाशीय तड़ित की भांति अकस्मात प्रश्न किया। सभा मे एकक्षण को शांति हो गयी, और तब अकस्मात मुनिवर संकटसागर के लिए आकाशवाणी हुई "हे मुनि संकट ! अपने शिष्यों के प्रति तुम्हारी ममता को मध्य लाना उचित नही, पूर्व में ब्रम्हदेव ने तुन्हें सुरभि धेनु का दान दिया था वह भी तुम अजयमेरू पर्वत पर भूल आये पुनः पुनः जब भी स्वाति नक्षत्र में तुम अर्चना करोगे तब संध्या वन्दन  और पूजा आदि के पश्चात तुम्हे सुचित्रावली बनानी होगी एवम तब तुम्हारे डब्बाचारी जैसे शिष्य तुम्हारे उपदेश का तात्पर्य तत्व से जान पाएंगे"
     डब्बाचारी भय से कांपने लगे उनकी वाणी रुद्ध होती जाती थी पुनः साहस एकत्रित कर के बोले "हे कृपालु! मुझसे क्या अपराध हो गया? ये आकाशवाणी क्या मुझ मूढ़ के प्रश्न के कारण हुई? हे देव! कृपया दया करें।"
    शांत सौम्य मुख मुद्रा को कम्पायमान करते हुए मुनि संकट बोले "पुत्र डब्बाचारी! तुम्हे मैंने पूर्व में बताया था कि सभी जीव जन्मना मूर्ख ही होते है  और स्पृह वायु के संचरण से मूर्खता का त्याग कर देते हैँ। न कि ऐसा बताया कि सभी जीव जन्मना प्रबल मूर्ख होते हैं। यही सत्य है । है न? बोलो"
   डब्बाचारी बोले "प्रमादवश त्रुटि हो गयी परमेष्ठिन! क्षमा करें!"
"नही पुत्र! हमारी तुम पर ममता ब्रम्हदेव को उचित नही लगती, क्योंकि तुम गुरु के उपदेश में त्रुटि का दर्शन कर रहे हो और स्वयं को अपने गुरु की सभा मे अधिक पंडित बताने की चेष्टा करते करते मूल उपदेशं ही को भूल रहे हो। तुम्हारी ये क्रिया ठीक चतुरदानव की तरह है जिसने अपने गुरुभ्राता रणछोड़दास से द्रोह किया था उसका परिणाम धूर्तत्रयी नामक ग्रंथ में सभी को विदित है।"
"अभी मेरे लिए क्या दण्ड है गुरूवर?" डब्बाचारी ने प्रार्थना की।
"यद्यपि तात! तुम भोले हो अतः क्षमा के अधिकारी हो किन्तु ब्रम्हदेव के कोप से तुम्हे एक शाप देता हूं कि अब जब कभी तुम अपनी बुद्धिमत्ता का अनर्गल प्रदर्शन करोगे तुम्हारी वाणी अवरुद्ध हो जाएगी और अपना मस्तक पाँचबार ऊपर नीचे करने पर एक शब्द कह पाओगे पूरा वाक्य कहने के लिए पच्चीस बार मस्तक और हाथ हिलाने होंगे" कह कर मुनि शांत हो गए ।
   कम्पित डब्बाचारी हाथ जोड़ कर बोले"आपका शाप शिरोधार्य भगवान! आप शाप में भी वरदान ही देते हो"
मुनि संकट स्मित हास्य के साथ पुनः उपदेशं करने लगते हैं।  "प्रचण्ड मूर्ख अपने पूर्वजों के तप से जन्मना प्रचण्ड मूर्ख हो सकते हैं अथवा स्वयम तपस्या से इस स्तर पर आते हैं। प्रचण्ड की लीला और चरित अथक कहे गए है क्योंकि ये कूपमंडूक की भांति एक ही स्थान या परिस्थिति में बिना थके और बिना रुके कर्म में प्रवृत्त रहते हैं और इस हेतु अखंड भी कहे जाते हैं क्योंकि प्रचण्ड मूर्ख आयुर्दाय के अंतिम चतुर्थांश तक या तो प्रचण्ड ही रहते है वा उसके पूर्व ही तपस्या से भीषणता को प्राप्त कर लेते हैं। अर्थात कैसी भी मूर्खता हो प्रचण्ड वा भीषण जीवन के अंतिम चतुर्थांश तक उस मूर्खता से प्रचण्ड मूर्ख आवृत्त ही रहते है। परंतु जीवन के अंतिम समय यदि दैव सहायक न हो और प्रचण्ड मूर्ख की तपस्या में प्रमादवश त्रुटि रह जाए तो प्रचण्ड की मूर्खता नष्ट भी हो सकती है किंतु साथ ही जीवन काल समाप्त होने से मूर्खता खण्डित नही हो पाती।चूंकि प्रबलं सदैव परिश्रम में लगा रहता है और अंत समय तक प्रयास करता है अतः उसका यह चरित राजसिक गुण वाला हुआ।
[यहाँ ११वें और १२वें श्लोक की टीका निश्चित हुई]
   "महात्मन! कृपया यह बताएं कि यदि उक्त दोनों प्रकार के मूर्ख यदि मूर्खता के पवित्र आश्रय का तिरस्कार रूपी घोर पाप में प्रवृत्त होते हैं, तो उनका क्या परिणाम होता है?" इस बार बटुक डब्बाचारी के स्थान पर मंगुमंगल और शेनुराज एक स्वर में बोले।
   मुनि संकट की गिरा गंभीर हुई और बोले "मेरे प्रिय शिष्यों! इस के बारे में त्रयोदश श्लोक में ऋषि गोपालः ने उन मूर्खता से पतित जीवों को तृण भोजी वृषभ और गर्दभ कहा है, जो संसार रूपी वन में अनंतकाल अर्थात पुनः मनुष्य देह मिलने तक भटकते रहते हैं। उसके पश्चात ऋषि गोपालः ने भीषण मूर्ख के लक्षण बतलाये हैं। ऋषि कहते है सात्विक स्वभाव वाले भीषण मूर्खः में पूर्वोक्त दोनों ही प्रकार के मूर्खज्ञाति के गुण तो होते ही है साथ ही सात्विक स्वभाव का होने से भीषण मूर्ख अपनी मूर्खताः से चारो दिशाओ से परिपूर्ण होता है। परिपूर्ण भीषण मूर्ख प्रकृति के विधान के समक्ष मृत्यु शैय्या पर भी पराजित नही होता, या तो एक जन्म में अन्यथा ठीक अगले जन्म में स्वयम भगवान उसे मोक्ष प्रदान करते हैं क्योंकि परमात्मा भी जानते है कि इस भीषण मूर्ख का और कुछ भविष्य नही हो सकता और ये यदि संसार मे टिके रह जाये तो सारी सृष्टि को अपनी मूर्खता के प्रभाव में ले कर तीनो लोको की गति अवरुद्ध कर देगा। ऋषि गोपालः कहते हैं ऐसी भीषण मूर्खता अति दुर्लभ है क्योंकि विधि और प्रकृति के विरुद्ध कर्म करना अति दुष्कर और प्रायः असम्भव है। भीषण मूर्खः यदि मुक्त नही हुआ तो उसका अगला जन्म भी भीषण ही का होता है और आयु के द्वितीय चतुर्थांश तक भीषणता में दीक्षित हो जाता है फिर परमात्मा को स्वयं मुक्ति देनी पड़ती है।
इसी हेतु प्रत्येक नर का कर्त्तव्य है कि घोर तप रूपी कर्म करके भीषण मूर्खता को प्राप्त करे क्योंकि ये मनुष्य का शरीर देवों को भी दुर्लभ है और मूर्खताः कि प्राप्ति कलियुग में केवल मनुष्य देह के लिए आरक्षित की गई है। हे आशु! शीघ्रता करो और तपपूर्वक भीषण मूर्खता को प्राप्त होओ।"
[१३वें श्लोक से षोडश श्लोक पर्यन्त टीका निश्चित हुई]
मुनि संकटसागर ने कहा " यति आशुतोष भाव विभोर होकर बोले कि हे महामूर्ख गोपालः आपकी महा कृपा हुई कि मैं। (यति आशुतोष) कृतार्थ हुआ हूं आपकी वाणी मुक्ति दायिनी है। इसके बाद मण्डू ऋषि ने देखा दोनो मूर्खद्वय भोजन करने अपने अपने भवन को गमन कर गए। और मंडू ऋषि ने अपनी सुदीर्घ जिह्वहा से लपक कर कीट का भक्षण किया  और पास ही के जलगर्त में शीघ्रतासे प्रवेश कर गए
"तो शिष्यों मैंने जो उपदेशं तुम्हें दिया है उससे तुम्हारा पाण्डित्य नष्ट हुआ? स्पृह वायु के सम्पर्क में आने से जो विष ज्वर तुम्हे चढ़ा वह नष्ट हुआ? मुनि संकट बोल कर समाधिस्थ हो गए।
   मुनिवर संकट के शिष्य बटुक डब्बाचारी के नेतृत्व में एक स्वर में बोले "हे परमेष्ठिन! समस्त भागम शास्त्र के ज्ञाता! मूर्खता के प्रधान पुरोहित! आपकी जय हो! समस्त दिशाओं में आपकी जय हो! प्रभो आप ने हम सांसारिक जीवों पर बड़ा उपकार किया है आपकी महिमा अनंत गुणों वाली है। हमारा स्पृह वायु के संसर्ग से उत्पन्न विष ज्वर आज नष्ट हुआ आपकी कृपा हुई।"
   " मुनि 10008 डब्वचारी सेवित परमेष्ठी संकटसागर की जय जय कार होवे" ऐसा बोल कर सभी शिष्य शांत हो गए। तभी सभी ने देखा मुनिवर ने अपने मण्डूक समान दिव्यचक्षु खोले और कहा " ये उपदेशं जो मैंने आज निष्फल स्तोत्र पर शिष्यों तुम्हे दिया है आज से निष्फल भाष्य कहलायेगा। मेरे साथ साथ अब सभी शिष्य नृत्य संकीर्तन में प्रवृत्त होंगे "
   ऋषि श्रेष्ठ गोपाल की जय!
  यतिराज आशुतोष महात्मा की जय!
  मुनिराज संकटसागर की जय!
  उभयचारि जलर्षि मण्डू की जय!
जयकार से दिग्दिगंत आंदोलित हो गुंजायमान हो उठे । देवता पुष्पवृष्टि करने लगे। मूर्खज्ञाति के मनुष्यों के भवनों पर दुग्ध वृष्टि होने लगी । ऋषि गोपालः और यतिराज आशुतोष ने भक्तों को दर्शन दिए। और मिष्ठान आदि का भोग लगा अंतर्ध्यान हो गए। मुनिवर और उनके शिष्य सभी हर्षातिरेक में विभोर हो नाचने गाने लगे
                                मौन शांति शांति शांति



शिष्यों शेनुराज, डब्वचारी और मंगुमंगल के संकीर्तन नृत्य में मुनिसँकट का अलौकिक दिव्य प्रागट्य(मध्य में)



घुमड़ते बादल........

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