Friday, February 19, 2016

दया धर्म का मूल है Daya Dharm ka Mool hai

                                   दया
    दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान |
  तुलसी दया न छांड़िये जब तक घट में प्राण ||
तुलसीदास जी की यह सूक्ति कोई भी देश काल हो प्रासंगिक रहती है, तुलसी अपने काल के महान कवि के साथ साथ एक धर्म  शास्त्रज्ञ और युगदृष्टा दार्शनिक महापुरुष भी थे| इन सभी से बढ़ कर तुलसी एक संत थे। यही सन्तत्व दया के पक्ष में तुलसी को खड़ा करता है, तुलसी शास्रज्ञ है और शास्त्र भी दया को धर्म के मुख्य अंग के रूप में प्रमुखता देता है।
     आज के परिप्रेक्ष्य में यदि हम दया को देखे तो पाएंगे की मानव अधिकार मत यह कहता है कि किसी मनुष्य पर दया कोई उपकार नहीं होता, समान प्रेम और सद भावना से व्यवहार प्रत्येक मानव का अधिकार है, और इसी अवधारणा पर काम करते हुए विश्व की लगभग सभी शासन व्यवस्थाओं में लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना पर बल दिया गया है। जिसमे मनुष्य का प्राण सर्वोपरि माना जाता है, सभी देशो की न्यायपालिका इसीलिए है कि स्थापित दंड संहिता के अनुरूप दया के विपरीत किये किसी भी कर्म को दण्डित कर सके चाहे वो मृत्युदंड भी क्यों न हो। और इन सब के ऊपर कार्यपालिका/शासनाध्यक्ष ( अधिनायक ) न्याय में सुधार  कर मृत्युदंड में क्षमादान भी दे सकते है, और इन सबके विपरीत जब कोई जीवित प्राणी ऐसी किसी निरुपाय व्याधि से जूझ रहा हो जिसकी चिकित्सा संभव न हो तब दया मृत्यु की मांग भी की जाती रही है।
                       तो दोनों विपरीत मार्ग एक ही एक स्थान पर कैसे जा सकेंगे भला ? एक मार्ग मृत्युदंड है जो दया न करने पर दिया गया है और दूसरा मार्ग दया के चलते मृत्यु देना हुआ? तो हम क्या समझें ? सब बातो का सार तो यही हुआ कि किसी मनुष्य अथवा प्राणी की पीड़ा को कम करने या समाप्त करने के लिए किसी दूसरे प्राणी या मनुष्य जो पीड़ा का कारण है उन्हें या निरुपाय होने पर पीड़ित का मर जाना श्रेयस्कर है और इस दिशा में किया गया कार्य दया कहलाता है। और यहीं दया का ध्येय पूरा हो ईजाता है । परन्तु दया आई कहाँ से इस पर विचार कर लेते हैं, दया के जन्म से ठीक पहले उसकी बड़ी बहिन सहानुभूति जन्म लेती है और जनसाधारण में बिना सहानुभूति के दया नहीं आ पाती है यह सहानुभूति क्या है इसके लिए उदाहरण है कि नित्य जीवन में हमारे आस पास कई जीव जन्तु मरते रहते हैं, अधिकतर जीव हमारे नेत्रों से दिखाई नहीं देते उनके मरण का ज्ञान भी नहीं होता शोक दया का तो प्रश्न ही नहीं उठता, किन्तु कुछ कीट वर्ग के जीव हमारे प्रमाद से या बचते बचाते भी मर जाते या आहत हो जाते है परन्तु हम उनकी पीड़ा में भोजन करना नहीं त्याग देते और न ही ज्यादा शोक मानते हैं किंतु जब यही प्राणी लाल रक्त वाला हो तब हम में से अधिकांश लोग भोजन नहीं कर पाते और कुछ लोगो की नींद भी उडी ही समझो। ऐसा क्यों?  लालरक्त का बहना ही सहानुभूति है जिसके चलते मनुष्य में अन्य मनुष्यो और मानवेतर प्राणियो ले प्रति दया उत्पन्न होती है हम जानते है रक्त बहना पीड़ादायक होता है इसी सहानुभूति के चलते दूसरे की पीड़ा स्वयं को सालती है। और हम दया के लिए विवश हो उठते हैं यही कारण है की सभ्य समाज में मृत्युदंड इस तरह दिया जाता है की रक्त बहता न दिखे। मनुष्य का स्वयं की पीड़ा के लिए भय ही सहानुभूति है उस भय के निवारण के लिए किया गया भलाई का काम जनसाधारण में दया कहलाता है। बिना कारण की गयी भलाई ही करुणा है जो किसी बिरले सन्त में ही होती है।
       जनसाधारण और सन्त से अलग कुछ मनुष्यों में दया का लोप हो जाता है परन्तु क्या कारण है दया के लोप होने का ?
तुलसी कहते हैं
        'काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पन्थ '
   काम अर्थात कामना करना बुरा नहीं किंतु ऐसी वस्तु या स्थिति जो हमारे अधिकार में न हो उसकी कामना करना बुरा है क्योंकि उसकी प्राप्ति में विघ्न को हटाने के लिए दया को त्यागना होगा, ठीक इसी तरह क्रोध और लोभ के चलते हम दया को भूल जाते हैं । मद अर्थात अहंकार में हम किसी को अपने स्व से महत्तर नही देखते दया को तो त्याग ही देते है क्योंकि हमारा अज्ञात के प्रति भय समाप्त हो जाता है और हम हिंसा करने लगते हैं कामना और लोभ के मार्ग में विघ्न आने पर क्रोध होता है फिर अहंकार बढ़ता है फिर दया का लोप हो जाता है
        समय की परिस्थितियों में हमे दया की भीख मांगनी पड़ती है भीषणतम अपराधी भी क्षमा याचिका लगाते देखे जाते हैं दया मानव जीवन में बार बार अपनी उपस्थिति दिखा ही देती है और इसी दया को करुणा में परिवर्तित कर पाना ही हम मनुष्यों का  कर्त्तव्य है यही धर्म है।
       सहानुभूति की वैसाखी पकडे दया जगत् के अंधकार में ज्यादा नहीं चल पाती वहीँ करुणा की दिव्य दृष्टि संसार के महान् भय दुःख के अंधकार को चीर सकती है

घुमड़ते बादल........

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