अभी तक आपने पढ़ा शेनुराज शशिप्रभा के मोहजाल में आबद्ध हो चुके थे, और आगे सुनिए मुनि संकट के श्री मुख से।
वत्स डब्वचारी ! अब विवशता का जल बह कर शेनुराज को भिगो चला था।
परंतु प्रभो! शेनुराज सुसंस्कृत और सम्मानित परम्परा में आते है उन्हें क्योंकर विवश होना पड़ा। कृपया विस्तार से बताईये , डब्वचारी ने निवेदन किया।
मुनि संकट की गिरा गंभीर हो चली , बोले वत्स ! शेनुराज के पुर्वज ब्यावरारण्य के अन्य जंतुओं के समान ही विभिन्न क्षेत्रों से आ कर बसे थे। महामोदक ऋषि के कुल में सभी वंशज कंदुकमुखी के समान ही गोलाकार उत्पत्ति को प्राप्त होते है। अत: शेनुराज के पवित्र गोलाकार स्वरूप को कंदुकमुखी ने देखते ही समझ लिया कि ये भोले महाशय महामोदक ऋषि के वंश में अवतरित हुए है इनको शशिप्रभा सम्हला देती हूं, ऐसा विचार करके शशिप्रभा को शेनुराज की तपस्या भंग करने भेज देती है।
परंतु शशिप्रभा भी अपनी आदत से विवश थी वह एक ऋषि के लिए नही बनी थी उसे अन्य अन्य ऋषिओं की तपस्या भंग करने में आनंद की अनुभूति होती थी और 15 दिन का समय पूर्ण हो चला था । शशिप्रभा अपनी सखियों से कहती कि उसका जन्म किसी स्वर्गिक देवता की पत्नी बनने को हुआ है जो उसे विवाह पश्चात भी अन्य ऋषिओं की तपस्या भंग करने देगा। वो किसी ऋषि की पत्नी नही बनना चाहती थी। शेनुराज का वंश परम्परा से प्राप्त गोलाकार स्वरूप का शशिप्रभा परिहास करने लगी। परंतु कंदुकमुखी को नही कह पा रही थी।
प्रभो ! शेनुराज ने इस विषय मे अपने साथियों की सहायता क्यो नही ली ? डब्वचारी ने पूछा।
वत्स! पूरा सुनो ..... मुनिवर कहने लगे....
शेनुराज ने अपना हृदय का अनुभव यतिराज ,नवदानव और मुझ संकटसागर से साझा किया था। हम तीनों प्रारंभ में अति प्रसन्न हुए की शेनुराज के शुष्क जीवन मे मूर्खता के प्रचंड स्तर का आरंभ होने वाला था। चूंकि यतिराज पिछले 3 वर्ष से कच्छ द्वीप पर निर्वासित किये जा चुके थे अतः उन्हें ब्यावरारण्य के विषय मे अद्यतन ज्ञान नही रह गया था। वो कुछ ज्यादा ही प्रसन्न थे कि मित्र शेनुराज की तपस्या अंततोगत्वा भंग हो चली थी।
डब्वचारी बीच में बोल उठे , " प्रभु ! यतिराज का निर्वासन क्योकर हुआ? और कच्छद्वीप में वे क्या करते है? "
वत्स डब्वचारी ! .... यतिराज अकिंचन जीवन जीते थे परन्तु स्पृह वायु के संसर्ग से उनको मन मे घुशमुश नामक व्याधि हो गयी थी जिसका उपचार गृहत्याग ही था । अतः पुनः तपस्या करने के लिए यतिराज कच्छद्वीप चले गए थे। परंतु शेनुराज की तपस्या जब भंग हुई थी उस समय यतिराज तपस्या से अवकाश लेकर ब्यावरारण्य में विचरण के लिए पधारे हुए थे।
परंतु मेरा विचरण ब्यावरारण्य में सभी स्थानों पर होता रहता है। मुझे शशिप्रभा का सत्य ज्ञात हो गया था यही वार्ता यतिराज को जब मैंने निवेदन की तब हम दोनों महापुरुष विवशता के महासागर में गोते लगाने लगे। क्योंकि शेनुराज तपस्या भंग के पश्चात अति प्रसन्न थे और महामोदक ऋषि का प्रसाद वितरण कर चुके थे अब यदि वे पीछे हट जाते तो महामोदक के कुल की कीर्ति को कलंक लग जाता। उन्हें शशिप्रभा की सत्यता से अवगत कराना यतिराज के परामर्श पर स्थगित कर दिया गया। चूंकि हम विवश थे बोल नही सकते परन्तु शेनुराज के भविष्य को अंधकार में जाते भी नही देख सकते थे अतः विवश हुए हम दोनों प्रतिदिन ईश्वर से प्रार्थना करते रहते।
एक दिन ध्यानस्थ यतिराज को शशिप्रभा के वचन सुनाई दिए कि वो शेनुराज के दिव्य गोलाकार स्वरूप को नही चाहती और वो अब शेनुराज के जीवन से दूर जाना चाहती है। ये बात यतिराज ने मुझे बताई। परंतु हम विवश कुछ नही कर सकते थे।
उचित समय की प्रतीक्षा करते करते यतिराज पुनः कच्छद्वीप पधार गए। और मैं भी अपनी तपस्या में मग्न हो गया और अब शेनुराज के पास नवदानव के परामर्श के सिवाय कुछ न बचा ।
और वो दिन आ ही गया। जब शशिप्रभा ने कंदुकमुखी से शेनुराज को अपने हृदय की बात बताने को विवश कर दिया। कंदुकमुखी ने शशिप्रभा की विवशता के चलते विवश हो कर शेनुराज को मनगढंत बाते सुना दी और बोली कि यतिराज के परिवार वाले नही चाहते कि शेनुराज की उन्नति हो अतः सम्बन्ध विच्छेद का उत्तरदायित्व कंदुकमुखी ने स्वयं पर न लेकर ऐसा बोल दिया कि शेनुराज अभी तपस्या से कोई वरदान नही प्राप्त कर सके हैं और सम्पूर्ण ऐश्वर्य शेनुराज के पिताजी का तपोबल ही है।
यह बोल कर कंदुकमुखी ने पुत्रिमोह में आकर संबंध विच्छेद की घोषणा कर डाली।
"तो मुनिवर ! शेनुराज के हृदय पर क्या बीती होगी। और कंदुकमुखी के तपोबल अर्जन वाले कथन पर शेनुराज ने क्यो कुछ नही कहा। कृपया स्पष्ट कीजिये।" डब्वचारी ने निवेदन किया।
पुत्र डब्वचारी ! मनुष्य की विवशताओं का कोई अंत नही है।यतिराज का तपोबल भी कम नही था। उनके तपोबल के क्षीण होने पर उन्हें भी ब्यावरारण्य की पुण्य धरा से निर्वासित होना पड़ा था। उसी प्रकार शेनुराज ने महामाया की नगरी में भीषण तप किया परन्तु नादनवकंत नामक यक्ष ने समस्त तपोबल का हरण कर लिया था। ये रहस्य शेनुराज के सीमित मित्रजन को ही ज्ञात था। उसी के चलते शेनुराज पुनः ब्यावरारण्य पधार चुके थे।
अब शेनुराज के जीवन मे स्त्री मोह के साथ ही ये यक्ष प्रश्न खड़ा हो गया कि उनके तपोबल के क्षीण होने का पता कंदुकमुखी को कैसे पता चला। एक दिन अभ्यास के अनुसार शेनुराज नवदानव के पास बैठे शोक मग्न थे ।
"मित्र नवदानव ! कंदुकमुखी के रहस्योद्घाटन ने मेरा मन विचलित कर दिया है। उत्तम नर वह है जो अपने मान सम्मान के लिए सब कुछ कर दे, और मेरे सम्मान का क्षय इस घटनाक्रम से जो हुआ है उसका केंद्र बिंदु ये तपोबल के लोप का समाचार है जो कंदुकमुखी ने उद्घाटित किया है। इसके मूल में क्या हो सकता है? "
नवदानव ने कहा कि शेनुराज आपके नादनवकन्त यक्ष द्वारा तपोबल हरण का रहस्य किस किस को ज्ञात था?
मेरे परिवार और मित्र समुदाय के अतिरिक्त किसी और को ज्ञात नही था। शेनुराज ने कहा।
"तो फिर हो न हो ये यतिराज का ही काम है क्योंकि उसकी बहिन के ससुराल का कंदुकमुखी से संबंध है " नवदानव ने विस्फोटक में चिंगारी सी डाल दी ।
भीषण गर्जना हुई मानो किसी हलवाई का खाली भगोना धरा पर आ गिरा...... शेनुराज ने अपने दोनों हाथ वायु में बड़े वेग से हिला हिला कर प्रतिज्ञा की कि वो अब से यतिराज से अपनी मित्रता समाप्त करते है। साथ ही नवदानव और शेनुराज किसी कंदरा में प्रवेश कर गए।
विस्मित डब्वचारी बोले ..... प्रभो ! किन्तु शेनुराज ने विषय और आरोप की सत्यता के मूल में जाना उचित क्यो नही समझा?
मुनिसंकट बोले .... पुत्र ! नवदानव और शेनुराज दोनों भीमकाय और महापराक्रमी है। दोनों के पास भीमकाय देहयष्टि के साथ ही भीमकाय स्थूल बुद्धि भी है। स्यात उसी के चलते ये निर्णय ले लिया गया।
तो फिर यतिराज और शेनुराज कि मित्रता का अंत हो गया? डब्वचारी ने प्रश्न किया।
मुनि संकट बोले ... हाँ वत्स! , प्रारंभ में यतिराज ने प्रयास किया परन्तु बाद में यतिराज का कहना था कि मित्रता का मूल आपसी विश्वास होता है और शेनुराज के हृदय में अविश्वास घर कर गया है अतः स्पष्टीकरण देना मूर्खता होगी।
यतिराज , शेनुराज के माता पिता का बहुत सम्मान करते है। अतः एक बार उनसे मिलने भी गए माता जी ने बड़े प्रेम से जलपान कराया मिष्ठान्न भी परोसा किन्तु पिताजी ने बहुत खरी खोटी सुनाई , यतिराज ने वृद्धजन का प्रसाद समझ चरण स्पर्श कर विदा ली।
डब्वचारी ने आगे प्रश्न किया प्रभो ! कंदुकमुखी ने यतिराज की निंदा क्यो की?
मुनिसंकट ने उत्तर दिया... वत्स तुम्हे ज्ञात है कि कंदुकमुखी का यतिराज की बहिन के ससुराल से सम्बंध है। कंदुकमुखी ने प्रारंभ अपनी दोनों पुत्रियों का प्रस्ताव यतिराज के लिए किया था। जो सम्मानपूर्वक अस्वीकार कर दिया गया जिसे कंदुकमुखी ने अपमान समझा। यही कारण है कंदुकमुखी द्वारा यतिराज की निंदा का।
डब्वचारी का एक और प्रश्न हुआ " प्रभु ! किन्तु शेनुराज के क्षीण तपोबल का रहस्य कंदुकमुखी को कैसे ज्ञात हुआ?
मुनि संकट बोले " पुत्र कंदुकमुखी को रहस्य कैसे पता चला ये प्रमाण सहित नही कहा जा सकता , किन्तु एक कथा द्वारा रूपक से कही जा सकती है।
सुनो कथा .... दूर बनकट वन में एक ऋक्षराज अपनी पत्नी और एक मात्र पुत्र के साथ रहते थे। ऋक्षराज स्वभाव से उदार चित्त और भोले थे। एक बार उनका पुत्र कनिष्ठ किसी व्याध के जाल में फंस गया। ऋक्षराज ने बहुत सा धन देकर कनिष्ठ को मुक्त करवाया, क्षुब्ध ऋक्षराज की बहुत से मित्रों में उठ बैठ थी वो सभी जगह बोलते की मेरा पुत्र अयोग्य निकल गया मेरी सारी जमा पूंजी इस कारण नष्ट हो गई। कालांतर में ऋक्षराज अस्वस्थ हुए तो कनिष्ठ ने वनराज की सेना में आवेदन किया । वनराज ने यह बोल कर आवेदन अस्वीकार कर दिया कि तुम एक व्याध से अपनी रक्षा न कर सके और अपने पिता का धन नष्ट कर दिया। क्षुब्ध कनिष्ठ ने अपने मित्र शश कुमार से मित्रता तोड़ डाली और ऋक्षराज भी शश कुमार पर कुपित हो चले।
मुनि संकट ने कहा कि इस कथा से तुम शेष मर्म समझ जाओगे ,
डब्वचारी बोले प्रभो ! मैं मर्म समझ गया , यदि यतिराज दोषी होते तो कंदुकमुखी रहस्य उदघाटन के लिए यतिराज की ऋणी होती और उनकी निंदा नही करती , छोटी सी बात शेनुराज के भीमकाय मस्तिष्क में नही आ रही यही सबसे बड़ी विवशता है
यही विवशपुराण समाप्त हो गया।