Sunday, July 20, 2025

The Orchard and the Wind"


 'The Orchard and the Wind"


Once, two trees grew side by side

Rooted deep, with branches wide.

One day, a sudden wind arrived —

And one tree lost its budding bride.


The other tree stood still, surprised,

Yet blamed for winds it never raised.

Its silence fed the storm of doubt,

While leaves of trust fell all about.


Yet winds, they roam of their own mind,

Not all are summoned, not all designed.

So here I stand, my roots still clear,

No tempest whispered through me here.


If ever the sky clears, you’ll see —

Not every gust was born of me.


Trust me I was not behind all that ........................

Sunday, June 29, 2025

मुनि संकट का विवशपुराण भाग 2

 



अभी तक आपने पढ़ा शेनुराज शशिप्रभा के मोहजाल में आबद्ध हो चुके थे, और आगे सुनिए मुनि संकट के श्री मुख से। 

      वत्स डब्वचारी ! अब विवशता का जल बह कर शेनुराज को भिगो चला था। 

      परंतु प्रभो! शेनुराज सुसंस्कृत और सम्मानित परम्परा में आते है उन्हें क्योंकर विवश होना पड़ा। कृपया विस्तार से बताईये , डब्वचारी ने निवेदन किया। 

     मुनि संकट की गिरा गंभीर हो चली , बोले वत्स ! शेनुराज के पुर्वज ब्यावरारण्य के अन्य जंतुओं के समान ही विभिन्न क्षेत्रों से आ कर बसे थे। महामोदक ऋषि के कुल में सभी वंशज कंदुकमुखी के समान ही गोलाकार उत्पत्ति को प्राप्त होते है। अत: शेनुराज के पवित्र गोलाकार स्वरूप को कंदुकमुखी ने देखते ही समझ लिया कि ये भोले महाशय महामोदक ऋषि के वंश में अवतरित हुए है इनको शशिप्रभा सम्हला देती हूं, ऐसा विचार करके शशिप्रभा को शेनुराज की तपस्या भंग करने भेज देती है। 

        परंतु शशिप्रभा भी अपनी आदत से विवश थी वह एक ऋषि के लिए नही बनी थी उसे अन्य अन्य ऋषिओं की तपस्या भंग करने में आनंद की अनुभूति होती थी और 15 दिन का समय पूर्ण हो चला था । शशिप्रभा अपनी सखियों से कहती कि उसका जन्म किसी स्वर्गिक देवता की पत्नी बनने को हुआ है जो उसे विवाह पश्चात भी अन्य ऋषिओं की तपस्या भंग करने देगा। वो किसी ऋषि की पत्नी नही बनना चाहती थी। शेनुराज का वंश परम्परा से प्राप्त गोलाकार स्वरूप का शशिप्रभा परिहास करने लगी। परंतु कंदुकमुखी को नही कह पा रही थी। 

         प्रभो ! शेनुराज ने इस विषय मे अपने साथियों की सहायता क्यो नही ली ? डब्वचारी ने पूछा।

         वत्स! पूरा सुनो ..... मुनिवर कहने लगे.... 

   शेनुराज ने अपना हृदय का अनुभव यतिराज ,नवदानव और मुझ संकटसागर से साझा किया था। हम तीनों प्रारंभ में अति प्रसन्न हुए की शेनुराज के शुष्क जीवन मे मूर्खता के प्रचंड स्तर का आरंभ होने वाला था। चूंकि यतिराज पिछले 3 वर्ष से कच्छ द्वीप पर निर्वासित किये जा चुके थे अतः उन्हें ब्यावरारण्य के विषय मे अद्यतन ज्ञान नही रह गया था। वो कुछ ज्यादा ही प्रसन्न थे कि मित्र शेनुराज की तपस्या अंततोगत्वा भंग हो चली थी। 


डब्वचारी बीच में बोल उठे , " प्रभु ! यतिराज का निर्वासन क्योकर हुआ? और कच्छद्वीप में वे क्या करते है? " 


      वत्स डब्वचारी !  .... यतिराज अकिंचन जीवन जीते थे परन्तु स्पृह वायु के संसर्ग से उनको मन मे घुशमुश नामक व्याधि हो गयी थी जिसका उपचार गृहत्याग ही था । अतः पुनः तपस्या करने के लिए यतिराज कच्छद्वीप चले गए थे। परंतु शेनुराज की तपस्या जब भंग हुई थी उस समय यतिराज तपस्या से अवकाश लेकर ब्यावरारण्य में विचरण के लिए पधारे हुए थे। 

        परंतु मेरा विचरण ब्यावरारण्य में सभी स्थानों पर होता रहता है। मुझे शशिप्रभा का सत्य ज्ञात हो गया था यही वार्ता यतिराज को जब मैंने निवेदन की तब हम दोनों महापुरुष विवशता के महासागर में गोते लगाने लगे। क्योंकि शेनुराज तपस्या भंग के पश्चात अति प्रसन्न थे और महामोदक ऋषि का प्रसाद वितरण कर चुके थे अब यदि वे पीछे हट जाते तो महामोदक के कुल की कीर्ति को कलंक लग जाता। उन्हें शशिप्रभा की सत्यता से अवगत कराना यतिराज के परामर्श पर स्थगित कर दिया गया। चूंकि हम विवश थे बोल नही सकते परन्तु शेनुराज के भविष्य को अंधकार में जाते भी नही देख सकते थे अतः विवश हुए हम दोनों प्रतिदिन ईश्वर से प्रार्थना करते रहते। 

एक दिन ध्यानस्थ यतिराज को शशिप्रभा के वचन सुनाई दिए कि वो शेनुराज के दिव्य गोलाकार स्वरूप को नही चाहती और वो अब शेनुराज के जीवन से दूर जाना चाहती है। ये बात यतिराज ने मुझे बताई। परंतु हम विवश कुछ नही कर सकते थे।


उचित समय की प्रतीक्षा करते करते यतिराज पुनः कच्छद्वीप पधार गए।  और मैं भी अपनी तपस्या में मग्न हो गया और अब शेनुराज के पास नवदानव के परामर्श के सिवाय कुछ न बचा । 


   और वो दिन आ ही गया। जब शशिप्रभा ने कंदुकमुखी से शेनुराज को अपने हृदय की बात बताने को विवश कर दिया। कंदुकमुखी ने शशिप्रभा की विवशता के चलते विवश हो कर शेनुराज को मनगढंत बाते सुना दी और बोली कि यतिराज के परिवार वाले नही चाहते कि शेनुराज की उन्नति हो अतः सम्बन्ध विच्छेद का उत्तरदायित्व कंदुकमुखी ने स्वयं पर न लेकर ऐसा बोल दिया कि शेनुराज अभी तपस्या से कोई वरदान नही प्राप्त कर सके हैं और सम्पूर्ण ऐश्वर्य शेनुराज के पिताजी का तपोबल ही है। 

       यह बोल कर कंदुकमुखी ने पुत्रिमोह में आकर संबंध विच्छेद की घोषणा कर डाली। 

     "तो मुनिवर ! शेनुराज के हृदय पर क्या बीती होगी। और कंदुकमुखी के तपोबल अर्जन वाले कथन पर शेनुराज ने क्यो कुछ नही कहा। कृपया स्पष्ट कीजिये।" डब्वचारी ने निवेदन किया।

    पुत्र डब्वचारी ! मनुष्य की विवशताओं का कोई अंत नही है।यतिराज का तपोबल भी कम नही था। उनके तपोबल के क्षीण होने पर उन्हें भी ब्यावरारण्य की पुण्य धरा से निर्वासित होना पड़ा था। उसी प्रकार शेनुराज ने महामाया की नगरी में भीषण तप किया परन्तु नादनवकंत नामक यक्ष ने समस्त तपोबल का हरण कर लिया था। ये रहस्य शेनुराज के सीमित मित्रजन को ही ज्ञात था। उसी के चलते शेनुराज पुनः ब्यावरारण्य पधार चुके थे। 


      अब शेनुराज के जीवन मे स्त्री मोह के साथ ही ये यक्ष प्रश्न खड़ा हो गया कि उनके तपोबल के क्षीण होने का पता कंदुकमुखी को कैसे पता चला। एक दिन अभ्यास के अनुसार शेनुराज नवदानव के पास बैठे शोक मग्न थे । 



     "मित्र नवदानव ! कंदुकमुखी के रहस्योद्घाटन ने मेरा मन विचलित कर दिया है। उत्तम नर वह है जो अपने मान सम्मान के लिए सब कुछ कर दे, और मेरे सम्मान का क्षय इस घटनाक्रम से जो हुआ है उसका केंद्र बिंदु ये तपोबल के लोप का समाचार है जो कंदुकमुखी ने उद्घाटित किया है। इसके मूल में क्या हो सकता है? "

 नवदानव ने कहा कि शेनुराज आपके नादनवकन्त यक्ष द्वारा तपोबल हरण का रहस्य किस किस को ज्ञात था? 

      मेरे परिवार और मित्र समुदाय के अतिरिक्त किसी और को ज्ञात नही था। शेनुराज ने कहा। 

     "तो फिर हो न हो ये यतिराज का ही काम है क्योंकि उसकी बहिन के ससुराल का कंदुकमुखी से संबंध है "  नवदानव ने विस्फोटक में चिंगारी सी डाल दी । 

     भीषण गर्जना हुई मानो किसी हलवाई का खाली भगोना धरा पर आ गिरा...... शेनुराज ने अपने दोनों हाथ वायु में बड़े वेग से हिला हिला कर प्रतिज्ञा की कि वो अब से यतिराज से अपनी मित्रता समाप्त करते है। साथ ही नवदानव और शेनुराज किसी कंदरा में प्रवेश कर गए। 

    विस्मित डब्वचारी बोले ..... प्रभो ! किन्तु शेनुराज ने विषय और आरोप की सत्यता के मूल में जाना उचित क्यो नही समझा? 

    मुनिसंकट बोले .... पुत्र ! नवदानव और शेनुराज दोनों भीमकाय और महापराक्रमी है। दोनों के पास भीमकाय देहयष्टि के साथ ही भीमकाय स्थूल बुद्धि भी है। स्यात उसी के चलते ये निर्णय ले लिया गया। 

          तो फिर यतिराज और शेनुराज कि मित्रता का अंत हो गया? डब्वचारी ने प्रश्न किया। 

     मुनि संकट बोले ... हाँ वत्स! , प्रारंभ में यतिराज ने प्रयास किया परन्तु बाद में यतिराज का कहना था कि मित्रता का मूल आपसी विश्वास होता है और शेनुराज के हृदय में अविश्वास घर कर गया है अतः स्पष्टीकरण देना मूर्खता होगी। 

       यतिराज , शेनुराज के माता पिता का बहुत सम्मान करते है। अतः एक बार उनसे मिलने भी गए माता जी ने बड़े प्रेम से जलपान कराया मिष्ठान्न भी परोसा किन्तु पिताजी ने बहुत खरी खोटी सुनाई , यतिराज ने वृद्धजन का प्रसाद  समझ चरण स्पर्श कर विदा ली। 

        डब्वचारी ने आगे प्रश्न किया प्रभो ! कंदुकमुखी ने यतिराज की निंदा क्यो की? 

      मुनिसंकट ने उत्तर दिया... वत्स तुम्हे ज्ञात है कि कंदुकमुखी का यतिराज की बहिन के ससुराल से सम्बंध है। कंदुकमुखी ने प्रारंभ अपनी दोनों पुत्रियों का प्रस्ताव यतिराज के लिए किया था। जो सम्मानपूर्वक अस्वीकार कर दिया गया जिसे कंदुकमुखी ने अपमान समझा। यही कारण है कंदुकमुखी द्वारा यतिराज की निंदा का। 

      डब्वचारी का एक और प्रश्न हुआ " प्रभु ! किन्तु शेनुराज के क्षीण तपोबल का रहस्य कंदुकमुखी को कैसे ज्ञात हुआ? 


     मुनि संकट बोले " पुत्र कंदुकमुखी को रहस्य कैसे पता चला ये प्रमाण सहित नही कहा जा सकता , किन्तु एक कथा द्वारा रूपक से कही जा सकती है। 

    सुनो कथा .... दूर बनकट वन में एक ऋक्षराज अपनी पत्नी और एक मात्र पुत्र के साथ रहते थे। ऋक्षराज स्वभाव से उदार चित्त और भोले थे। एक बार उनका पुत्र कनिष्ठ किसी व्याध के जाल में फंस गया। ऋक्षराज ने बहुत सा धन देकर कनिष्ठ को मुक्त करवाया, क्षुब्ध ऋक्षराज की बहुत से मित्रों में उठ बैठ थी वो सभी जगह बोलते की मेरा पुत्र अयोग्य निकल गया मेरी सारी जमा पूंजी इस कारण नष्ट हो गई। कालांतर में ऋक्षराज अस्वस्थ हुए तो कनिष्ठ ने वनराज की सेना में आवेदन किया । वनराज ने यह बोल कर आवेदन अस्वीकार कर दिया कि तुम एक व्याध से अपनी रक्षा न कर सके और अपने पिता का धन नष्ट कर दिया। क्षुब्ध कनिष्ठ ने अपने मित्र शश कुमार से मित्रता तोड़ डाली और ऋक्षराज भी शश कुमार पर कुपित हो चले। 

     

         मुनि संकट ने कहा कि इस कथा से तुम शेष मर्म समझ जाओगे , 

डब्वचारी बोले प्रभो ! मैं मर्म समझ गया , यदि यतिराज दोषी होते तो कंदुकमुखी रहस्य उदघाटन के लिए यतिराज की ऋणी होती और उनकी निंदा नही करती , छोटी सी बात शेनुराज के भीमकाय मस्तिष्क में नही आ रही यही सबसे बड़ी विवशता है 

यही विवशपुराण समाप्त हो गया। 


Sunday, June 22, 2025

मुनिसंकट का विवशपुराण भाग 1

 


भारी कोलाहल के मध्य नगर के प्रवेश द्वार पर होड़ मची थी कि गुरुदेव के चरणों को कौन पखारेगा, सभी एक दूसरे से धक्का मुक्की कर रहे थे नगर के बड़े बड़े श्रेष्ठिजन उत्सुक हो कर बटुकजनो के इस प्रतिस्पर्धा पूर्ण व्यवहार को देख मन ही मन आनंदित हो रहे थे तभी एक ह्र्दयभेदी चीत्कार से सभी चोंक पड़े। देखा कि गुरुवर बटुकजनो के प्रेम से विवह्ल हो कर भूमि पर आ गिरे और सभी उन्हें उठाने को दौड़े। तभी फिर से चीत्कार हुई और इस बार की चीत्कार में प्रेम विवह्लता नही प्रतीत हो रही थी। हुई तो पिछली वाली चीत्कार में भी नही थी परंतु कथा को थोड़ा साहित्यिक बनाने के चक्कर मे बता दिया। सत्य बात तो ये थी कि चीत्कार में विव्हलता न होकर विवशता ही थी। गुरु थे महान योगिराज मुनि संकटसागर ! अवश्य ही ठीक पढ़ रहे है गुरुवर संकटसागर एक बार पुनः हिमालय से उतर कर इस कलिकाल से ग्रसित धरातल पर आ चुके थे। आगे....................

           मूर्खो तुम्हे अपने से वृद्धजनों से कैसे व्यवहार किया जाए इतना भी ज्ञात नही? मुनिवर लगभग रुंधे गले से बोले क्योंकि उनके शरीर के मध्य पश्चिम भाग में हुई पीड़ा ही इतनी घोर थी कि मुनिवर छिपा न सके। सभी भक्तगण के धक्का मुक्की में मुनिवर भू लुंठित हो चुके थे। 

     लज्जित बटुकजन बिना मन के बोले " कचौरी , समोसा और मिर्चिबड़ा आदि पदार्थ लाएं?"  

               सबसे आगे डब्बाचारी हाथ जोड़े खड़ा था गुरुवर उससे बोले कि सब छोड़ो और रथ ले आओ और इस जन समुदाय से दूर कही चलो बहुत ही ज्यादा हमारा मर्म किसी को पता न चले अन्यथा मध्य पश्चिम भाग के साथ उत्तर पूर्व में भी पीड़ा हो सकती है। 

      दिग्भ्रमित डब्बाचारी बोले " हे प्रभो ! ये उत्तर दक्षिण पूरब पछिम समझ नही आ रहा कृपया विस्तार से समझाए' 

        झुंझलाए मुनिवर बोले " वत्स हम योगियों को प्रचार नही सुहाता अतः एकांत में चलना चाहते है और इतने जन समुदाय के समक्ष हमारे  मध्य पश्चिम भाग के बल पर पतित होने पर हर्षित ये जन हमारी विचित्र सी वार्ता पर क्षुब्ध भी तो हो सकते है अतः शीघ्र यहां से प्रस्थान करो। 

        इतना सुनते ही सभी बटुक मंडली गुरुवर को अपने साथ द्विचक्र रथ पर बिठा के चम्पत हो लिए। 

        ब्यावरारण्य बहुत ही परिवर्तित हो चुका था समस्त वन के प्राणी विस्थापित हो चुके थे और उनके विस्थापन से वन और भी सुरम्य हो चला था। बचे खुचे प्राणी वन में लगे कचौर्यक के वृक्षो से अपनी भूख मिटाते और बार नामक जल स्रोतों से अपनी प्यास बुझा लेते थे। 

         रथ पर बैठे डब्बाचारी मुनिवर से बोले , गुरुदेव आप हिमालय पर इतने समय कैसे रह पाए? वहाँ तो चयसरिता भी नही बहती और कचौर्यक वृक्षों का भी वहां सर्वथा अभाव है फिर ये कैसे संभव हुआ? 

      मुनिवर गंभीर स्वर से बोले ' वत्स डब्बे , कृपा करके अपने गुरु को सुरक्षित एकांत में ले चलो क्योंकि तुम्हारी जिज्ञासा और रथ संचालन में समन्वय नही हो रहा और मध्य पश्चिम भाग में पीड़ा ठीक नही हुई है। ऐसा न हो ये संक्रमण मैं तुम्हे भी दे डालू अतः चुपचाप रहो। 

      डब्वचारी के द्विचक्र रथ में यद्यपि वह बात नही थी जो मुनिवर के युवाकाल के स्वतंत्र रथ में थी , परंतु अब काफी समय हो चला था और पुराने रथ अब प्रचलन में नही थे अब सक्रिय , बृहस्पति , और पारंगत  आदि द्विचक्र रथ ज्यादा पसंद किए जाने लगे थे। फिर भी मुनिवर पीछे बैठे बैठे तर्जनी के संकेत से रथ चालक को इधर उधर घुमाते घुमाते एक निर्जन स्थान पर ले आये। और एक शिला पर बैठ कर ध्यानस्थ हो गए। 

बहुत समय व्यतीत हो चला था । डब्वचारी जम्हाई लेते लेते बहुत बार झपकी ले कर सोते जागते समय काट रहे थे। तभी महात्मा थानोस की तर्ज पर  चुटकी बजाते हुए मुनिवर समाधि से बाहर आये। 

        डब्वचारी की तन्द्रा टूटी , बोले " मुनिवर आप इतने समय से कहाँ पर थे और आपके द्वारा जिन महापुरुषों का सत्संग हमे मिला वो कहा अंतर्धान हो गए, समस्त ब्यवरारण्य प्रतीक्षा करते करते उन्हें भूल गया है कृपया विस्तार से बताएं " 



        काल:क्रीडति ....................................................

बोल कर मुनिवर ऐसे मौन हो चले मानो आकाशीय तड़ित के गुंजार के पश्चात जैसे शांति छा जाती है और ठीक मेघ गर्जन के पश्चात जैसे जलवर्षा होती है उसी प्रकार मुनिवर के गोलाकार नेत्रो से अश्रुधार बह चली। 


      मुनिवर की विह्वल दशा देख कर हाथ जोड़ कर डब्वचारी बोले " भगवन ! आपके द्वारा कहे इस सूत्र की   व्याख्या कीजिये और अपने आप को  संयत कीजिये ताकि हम सब को भी सम्बल मिल सके। " 

 वत्स ! ये जगत समय के खेल के सिवा कुछ भी नही है। इसी काल मे ही समस्त जगत उत्पति स्थिति और संहार को प्राप्त होता है। और हम सब इसी खेल का अंश मात्र हैं और मिलन पर हर्ष और विछोह पर दुख ही प्रकट कर सकते हैं। मुनिवर बोल रहे थे । 

       " मनुष्य की विवशता उसे किसी और को विवश करने को विवश कर देती है और वह विवशता का पीड़ित विवश व्यक्ति विवश किये जाने वाले कि विवशता को न समझ कर किसी अन्य व्यक्ति को विवश होने को विवश कर देता है यही सबसे बड़ी विवशता है ।"   मुनिवर बोलते बोलते अपनी विवशता पर दुखी होते हुए सोचने लगे कि इस डब्वचारी को कुछ भी समझाना भी एक प्रकार की विवशता ही है। 

        डब्वचारी बोले " प्रभु मुझे जिज्ञासा किसी और विषय मे थी और आप कुछ और ही बताये जा रहे हो " 

      पुत्र ! मैं विवश हूँ ..... और इसी विवशता का बोध होना अतिदुष्कर है । 

     "खण्ड मूर्ख प्रबल जाति क्लान्तर्भवति  क्षिप्रता " ये सूत्र तुम्हे ज्ञात ही होगा। वत्स! 

     " जी गुरुवर ..... डब्वचारी बोले 

  तुम अभी वही हो , वही प्रबल मूर्ख जो शीघ्र ही क्लांत हो जाते हो। जीवन के चालीस बसंत पार कर चुके परन्तु प्रचण्ड मूर्ख स्तर को नही पा सके ....... तुम्हे स्पृह वायु के संसर्ग से बचना चाहिए। मुनिवर कह चुके। 

     प्रभो क्षमा ..... आगे से ऐसी त्रुटि नही होगी ..... 

डब्वचारी कम्पित हाथो को जोड़कर बोले ।

    सुनो..... एक विवश पिता जो अपनी एक विवश पति भी है उसकी विवशता एक संक्रामक रोग बन कर कितनो को विवश कर गयी ये उसकी महागाथा है। 

       ब्यवरारण्य में चयसरियताओं का एक जाल सा बुना हुआ है , प्रत्येक पर्वत से अनगिनत चयसरिताओ का प्रस्फुटन होता रहता है। पुरुषोत्तम पर्वत जिसका उद्गम गन्धनगर जो कि आदर्श नगर के ही पास स्थित है से हुआ है  । पुरषोतम पर्वत का शिखर ब्यवरारण्य के अजयमेरु द्वार से भीतर प्रवेश करने पर प्रथम चौराहे पर देखा जा सकता है। इस पर्वत की प्रसिद्धि ज्यादा नही है जितनी कि जामुन पर्वत या गर्वन्ध पर्वत की है। परंतु पुरषोतम पर्वत के निवासियों मे कन्दुक मुखी नामक एक राक्षसी भी है और उसी राक्षसी ने विवशता के झरने का द्वार खोल दिया था ये कथा उसी के बारे में है। 

परमेष्ठिन .....!  ये आदर्शनगर तो शेनुराज का निवास स्थान है क्या कथा का सम्बंध उन्ही से है ? डब्वचारी को जिज्ञासा हुई। 

     सही पकड़े हो..... वत्स ! आगे सुनो 

         मुनिवर ने आगे बोलना शुरू किया.... 

राक्षसी कंदुकमुखी के दो पुत्रिया थी । प्रथम पुत्री को जयरण्य में निवास करने वाला भीष्मक नामक राक्षस हरण करके ले गया। कंदुकमुखी को अब द्वितीय पुत्री की चिंता खाने लगी उसका नाम शशिप्रभा था। यथा नाम तथा गुण ...... शशिप्रभा युवा अवस्था मे प्रवेश करने के बाद महीने के 15 दिन दिखाई देती और बाकी के 15 दिन कही छिप जाती थी। कंदुकमुखी बाकी के 15 दिन लोकसमुदाय में इधर उधर की बाते बनाकर काम चला लेती थी। परंतु ब्यवरारण्य के पशु बहुत ही भीषण मूर्ख है तुम तो परिचित हो ही। इन पशुओं का ब्यवरारण्य की सभी कंदराओं में आना जाना होता है वो उन 15 दिनों की सत्यता को जान चुके थे। कंदुकमुखी की बाते बनाना अब काम नही कर रहा था। 


परंतु प्रभु!  ऐसी क्या सत्यता ज्ञात होने का भय कंदुकमुखी को था जो वो बाते बनाती थी? डब्वचारी ने उचित प्रश्न किया। 


वत्स! सत्य क्या होता है ? सुनो सत्य वही होता है जो श्रोता सुनना चाहता है । जो श्रोता नही सुनना चाहता वह असत्य हो जाता है। कंदुकमुखी जो चाहती थी वह सत्य के रूप में बताती थी । और ब्यवरारण्य क पशु जो आनंद शशिप्रभा के 15 दिवस के लोप होने के संभावित कारण जानते थे उसे सत्य के रूप में प्रचारित करने लगे। 

       शशिप्रभा की एक विवशता थी जो कि सत्य के रूप में बाहर आ गयी। वास्तव में शशिप्रभा 15 दिवस अप्सरा में परिवर्तित हो जाती थी और बाकी के समय अपने मानव रूप में आ जाती थी । जब वह अप्सरा रूप में होती थी तब वह एक गुरुकुल के आचार्य को मोहित करके उसकी तपस्या भंग कर देती थी । गुरुकुल के आचार्य ने शशिप्रभा को प्रधान शिक्षिका का पद प्रदान कर दिया और प्रचारित कर दिया  कि वह अप्सरा अपनी प्रसन्नता से ये सब करती है। परंतु शशिप्रभा स्पृह वायु के संसर्ग से विवशता के चरम पर पहुच चुकी थी।  कंदुकमुखी ने इस सत्य के उदघाटित होने से पूर्व ही शशिप्रभा के हरण की योजना बनाई। 

         ब्यवरारण्य के सभी जंतु शशिप्रभा को अपनी कंदराओं से दूर रखना चाहते थे अतः कंदुकमुखी ने शेनुराज की कंदरा में शशिप्रभा का सत्य छिपाना चाहा। शेनुराज बहुत समय से तपस्या कर रहे थे कोई अप्सरा उनका ध्यान भंग नही कर पाई थी। कंदुकमुखी ने शेनुराज की तपस्या भंग करने शशिप्रभा को भेजा और शेनुराज इतने ही पर बैठे थे  बाण हृदय पर खा बैठे। 

        " रंग भरे बादल पे 

           तेरे सपनो के काजल से

           मैंने मेरे दिल पर लिख लिया

          तेरा नाम ...... शशिप्रभा ओ मेरी शशिप्रभा.... "" 




The Orchard and the Wind"

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