मुनि संकटसागर कृत निष्फल स्तोत्र टीका
निष्फल भाष्य
गोपालः ऋषि के मुख पंकज से निकले मूर्खः वाक्यो जो कि एक छंदबद्ध ज्ञान सरिता के रूप में मुनि संकटसागर यानी मुझ मूढ़ के हृदयतल को आंदोलित और विडोलित करते हैं बहुत ही आत्मकल्याण का कारण हैं। धन्य है गोपाल ऋषि और यती आशुतोष जिनका संवाद सम्पूर्ण मानव जाति को मूर्खोपदेश प्राप्ति का कारण बना और मूर्खताः के आंनद सागर में गोते लगाने वाले मण्डू ऋषि की भी वंदना करने का ही मेरा अभिप्राय है।
मुनिवर संकटसागर के इन वचनों को सुन कर शिष्यगण के मन मे जिज्ञासा का प्रादुर्भाव हुआ, और सारे शिष्यगण की और से बटुक डब्बाचारी ने प्रश्न किया,
"हे, प्रभो! आप समस्त लोको का विचरण अपने स्वतंत्रता रूपी वाहन पर अनवरत करते रहते हो और एक स्थान पर अढाई घटी से ज्यादा रुकते नही हो। और हमको भी आप शिक्षा चलते फिरते ही दे पाते हो, इतना गंभीर ज्ञान आप कैसे और कहां प्राप्त कर पाए हो? प्रभो! ये ऋषि गोपाल कौन हैं? और यही जिज्ञासा याति आशुतोष के विषय मे भी है! साथ ही वार्ता के सूत्रधार मण्डू ऋषि के विषय मे भी शीघ्रतासे और विस्तार से बतलाने की कृपा करें।"
आगे डब्बाचारी बोलते गए " प्रभो! आप अपने ज्ञान को ठीक उसी प्रकार हमारे जिज्ञासु हृदयों को दे सकने में समर्थ हो जिस प्रकार ताड़ पत्र पर लिखी छंदबद्ध स्तुति को कोई यंत्र प्रतिलिपि बना सकता है, अतः प्रभु शीघ्र ही ऐसा करने की कृपा करें"
शिष्यों के विनय से प्रसन्न होकर मुनिवर बोल पड़े " पुत्र डब्बे! बड़ा ही उचित और लोको के कल्याण के हेतु तुमने प्रश्न किया है, अतः तुम बड़े बड़भागी हो, परंतु पुत्र! मुझे शिष्य गण में एक महान विभूति के दर्शन नही हो रहे?"
आप किसकी बात कर रहे हो भगवन? विस्मित डब्बाचारी ने प्रश्न किया
मुनिवर बोले " वत्स! इतने स्वार्थी न बनो! अपने दीर्घकाय सहपाठी को विस्मृत न करो! जाओ और पता करो मेरे परम प्रिय शिष्य शेनुराज महावीर कहाँ रह गए हैं?
इतना सुनते ही लज्जित डब्बाचारी गुरुदेव को नमन करके जाने को उद्यत हुए ही थे इतने में एक शिष्य मंगुमंगल ने उच्चस्वर में पुकारा "भ्राता डब्बा ! कहाँ जाते हो? क्या आप को इतना भी स्मरण नही कि शेनुराज अभी तपस्या करने समुद्र तट पर जहाँ मिष्ठी नदी सागर से मिलती है महामाया देवी के मंदिर में बैठे हैं? हे डब्बा भ्राता! अपने दिव्यचक्षु से शेनुराज को मुनिवर का ज्ञान इसी समय प्रसारण कर के उन्हें लाभान्वित करवाओ।
"अति उत्तम परामर्श है वत्स! हे मंगुमंगल तुम यथेष्ठ कहते हो" मुनिवर आगे बोले " डब्बा! संपर्क स्थापित करो।
जो आज्ञा गुरुदेव! कह कर डब्बाचारी ने शेनुराज महावीर से संपर्क स्थापित किया और मुनिवर और शेनुराज में कुशलक्षेम वार्ता के पश्चात मुनि संकट बोले
"सुनो वत्स डब्बे! गोपाल ऋषि का काल कोई सतयुग नही है वे बड़े ही ज्ञानी महात्मा है उनका काल अभी आधुनिक काल ही है अभी पुण्यनगर में अपने ज्ञान से वहाँ के निवासियों को तृप्त कर रहे है , और यति आशुतोष तो यही अपने ब्यावरारण्य में ही विचरण करते यदा कदा दिख ही जाते है कभी उनका दर्शन करना हो तो कचोरीफल और मिष्ठान्न का भोग साथ मे लेकर उनकी कंदरा जो कि ऋक क्षेत्र में जीवनषटचत्वारिशत पर्वत पर अवस्थित है जा सकते हो! परंतु स्मरण रहे रिक्त मत जाना कुछ मिष्ठान्न आदि भेंट लेके ही जाना।"
"सत्य वचन भगवन! मेरा बहुत आना जाना है यति आशुतोष के यहाँ, बड़े ही दयालु हैं, यति आशुतोष तो स्वयं ऋक क्षेत्र से चल कर भक्तो के घर जा के मिष्टान्न ग्रहण करने की कृपा कर देते हैं, उनका उदर दिखता तो लघु है परंतु यति एक वृषभ कि भांति भोजन करने की क्षमता रखते है " शेनुराज महावीर ने भरी सभा मे हर्ष के साथ कहा।
मुनि संकट बोले" साधु!साधु! शेनुराज तुमको बहुत ज्ञान है तुम तो भ्रमणशील हो अतः ज्ञानी हो परंतु तुम्हारा गुरुभाई डब्बाचारी भोला है ये भी ऋक क्षेत्र ही में निवास करता है परंतु पूर्णगिरी और मदनगिरी पर्वतों से आगे कभी गया नही है। परन्तु इसे आज यति आशुतोष की महिमा का बोध हो गया है! क्यों वत्स डब्बे?"
जी गुरुदेव बोल कर डब्बाचारी गगन में निहारने लगे और मुनि संकट आगे बोले" ऋषि मंडू तो एक तुच्छ से फुदकने वाले मेंढक ही थे परंतु पूर्व जन्म में पुण्यकृत संचय इस जन्म में गोपालाषु संवाद के साक्षी बने और स्वयं परमपिता ब्रम्हा ने उन्हें ऋषि मंडू की संज्ञा प्रदान की और एक सहस्त्र पुत्रो का वरदान दिया। संवत संवत २०७४ भाद्रप्रदा कृष्ण पंचमी को सांय काल जब मण्डू ऋषि कीटभक्षण को उद्यत हुए ही थे तभी गोपालाशु संवाद प्रारंभ हुआ और मण्डू ऋषि निर्निमेष से देखते गए और सुनते गए।
याति आशुतोष ने मित्र गोपाल ऋषि से अधिकार पूर्वक कहा "हे मित्र! गोपला मित्र!(यहाँ प्रेमपूर्वक संबोधित किया गया है जैसे मुनि संकटसागर को संक्या, शेनुराज महावीर को ढेबा और मंगुमंगल को मांग्यो करके मित्रगण कह देते है ) मेरा जीवन अभी निःरस हो गया है समय के अतिरिक्त और कुछ प्रचुर मात्रा में ऐसा मेरे स्वामित्व में नही है जिसे उपभोग किया जा सके मुझ अकिंचन के पास यही समय प्रचुर मात्रा में है और इसे व्यतीत करने के लिए कोई निष्फल सी वार्ता ही कर दो।"
तो शिष्यों! ये परिचय आदि हो चुका अब निष्फल स्तोत्र की टीका से पूर्व इस स्तोत्र का स्मरण कर लेते है"
मुनिवर संकटसागर के इन वचनों को सुन कर शिष्यगण के मन मे जिज्ञासा का प्रादुर्भाव हुआ, और सारे शिष्यगण की और से बटुक डब्बाचारी ने प्रश्न किया,
"हे, प्रभो! आप समस्त लोको का विचरण अपने स्वतंत्रता रूपी वाहन पर अनवरत करते रहते हो और एक स्थान पर अढाई घटी से ज्यादा रुकते नही हो। और हमको भी आप शिक्षा चलते फिरते ही दे पाते हो, इतना गंभीर ज्ञान आप कैसे और कहां प्राप्त कर पाए हो? प्रभो! ये ऋषि गोपाल कौन हैं? और यही जिज्ञासा याति आशुतोष के विषय मे भी है! साथ ही वार्ता के सूत्रधार मण्डू ऋषि के विषय मे भी शीघ्रतासे और विस्तार से बतलाने की कृपा करें।"
आगे डब्बाचारी बोलते गए " प्रभो! आप अपने ज्ञान को ठीक उसी प्रकार हमारे जिज्ञासु हृदयों को दे सकने में समर्थ हो जिस प्रकार ताड़ पत्र पर लिखी छंदबद्ध स्तुति को कोई यंत्र प्रतिलिपि बना सकता है, अतः प्रभु शीघ्र ही ऐसा करने की कृपा करें"
शिष्यों के विनय से प्रसन्न होकर मुनिवर बोल पड़े " पुत्र डब्बे! बड़ा ही उचित और लोको के कल्याण के हेतु तुमने प्रश्न किया है, अतः तुम बड़े बड़भागी हो, परंतु पुत्र! मुझे शिष्य गण में एक महान विभूति के दर्शन नही हो रहे?"
आप किसकी बात कर रहे हो भगवन? विस्मित डब्बाचारी ने प्रश्न किया
मुनिवर बोले " वत्स! इतने स्वार्थी न बनो! अपने दीर्घकाय सहपाठी को विस्मृत न करो! जाओ और पता करो मेरे परम प्रिय शिष्य शेनुराज महावीर कहाँ रह गए हैं?
इतना सुनते ही लज्जित डब्बाचारी गुरुदेव को नमन करके जाने को उद्यत हुए ही थे इतने में एक शिष्य मंगुमंगल ने उच्चस्वर में पुकारा "भ्राता डब्बा ! कहाँ जाते हो? क्या आप को इतना भी स्मरण नही कि शेनुराज अभी तपस्या करने समुद्र तट पर जहाँ मिष्ठी नदी सागर से मिलती है महामाया देवी के मंदिर में बैठे हैं? हे डब्बा भ्राता! अपने दिव्यचक्षु से शेनुराज को मुनिवर का ज्ञान इसी समय प्रसारण कर के उन्हें लाभान्वित करवाओ।
"अति उत्तम परामर्श है वत्स! हे मंगुमंगल तुम यथेष्ठ कहते हो" मुनिवर आगे बोले " डब्बा! संपर्क स्थापित करो।
जो आज्ञा गुरुदेव! कह कर डब्बाचारी ने शेनुराज महावीर से संपर्क स्थापित किया और मुनिवर और शेनुराज में कुशलक्षेम वार्ता के पश्चात मुनि संकट बोले
"सुनो वत्स डब्बे! गोपाल ऋषि का काल कोई सतयुग नही है वे बड़े ही ज्ञानी महात्मा है उनका काल अभी आधुनिक काल ही है अभी पुण्यनगर में अपने ज्ञान से वहाँ के निवासियों को तृप्त कर रहे है , और यति आशुतोष तो यही अपने ब्यावरारण्य में ही विचरण करते यदा कदा दिख ही जाते है कभी उनका दर्शन करना हो तो कचोरीफल और मिष्ठान्न का भोग साथ मे लेकर उनकी कंदरा जो कि ऋक क्षेत्र में जीवनषटचत्वारिशत पर्वत पर अवस्थित है जा सकते हो! परंतु स्मरण रहे रिक्त मत जाना कुछ मिष्ठान्न आदि भेंट लेके ही जाना।"
"सत्य वचन भगवन! मेरा बहुत आना जाना है यति आशुतोष के यहाँ, बड़े ही दयालु हैं, यति आशुतोष तो स्वयं ऋक क्षेत्र से चल कर भक्तो के घर जा के मिष्टान्न ग्रहण करने की कृपा कर देते हैं, उनका उदर दिखता तो लघु है परंतु यति एक वृषभ कि भांति भोजन करने की क्षमता रखते है " शेनुराज महावीर ने भरी सभा मे हर्ष के साथ कहा।
मुनि संकट बोले" साधु!साधु! शेनुराज तुमको बहुत ज्ञान है तुम तो भ्रमणशील हो अतः ज्ञानी हो परंतु तुम्हारा गुरुभाई डब्बाचारी भोला है ये भी ऋक क्षेत्र ही में निवास करता है परंतु पूर्णगिरी और मदनगिरी पर्वतों से आगे कभी गया नही है। परन्तु इसे आज यति आशुतोष की महिमा का बोध हो गया है! क्यों वत्स डब्बे?"
जी गुरुदेव बोल कर डब्बाचारी गगन में निहारने लगे और मुनि संकट आगे बोले" ऋषि मंडू तो एक तुच्छ से फुदकने वाले मेंढक ही थे परंतु पूर्व जन्म में पुण्यकृत संचय इस जन्म में गोपालाषु संवाद के साक्षी बने और स्वयं परमपिता ब्रम्हा ने उन्हें ऋषि मंडू की संज्ञा प्रदान की और एक सहस्त्र पुत्रो का वरदान दिया। संवत संवत २०७४ भाद्रप्रदा कृष्ण पंचमी को सांय काल जब मण्डू ऋषि कीटभक्षण को उद्यत हुए ही थे तभी गोपालाशु संवाद प्रारंभ हुआ और मण्डू ऋषि निर्निमेष से देखते गए और सुनते गए।
याति आशुतोष ने मित्र गोपाल ऋषि से अधिकार पूर्वक कहा "हे मित्र! गोपला मित्र!(यहाँ प्रेमपूर्वक संबोधित किया गया है जैसे मुनि संकटसागर को संक्या, शेनुराज महावीर को ढेबा और मंगुमंगल को मांग्यो करके मित्रगण कह देते है ) मेरा जीवन अभी निःरस हो गया है समय के अतिरिक्त और कुछ प्रचुर मात्रा में ऐसा मेरे स्वामित्व में नही है जिसे उपभोग किया जा सके मुझ अकिंचन के पास यही समय प्रचुर मात्रा में है और इसे व्यतीत करने के लिए कोई निष्फल सी वार्ता ही कर दो।"
तो शिष्यों! ये परिचय आदि हो चुका अब निष्फल स्तोत्र की टीका से पूर्व इस स्तोत्र का स्मरण कर लेते है"
ऋषि मण्डू उवाचः
इदं अहम प्रवक्ष्यामि मूर्खम ज्ञानमतिदुर्लभम
ब्यवरारण्य राजस्थाने गोपालऋषि निर्झरी ||१||
ब्यावरारण्ये पुण्यतिथौ भाद्रपद कृष्ण- पञ्चमी|
सांध्य काले विक्रमार्के विशन्तिचतुःसप्ततिताम ||२||
इदं अहम प्रवक्ष्यामि मूर्खम ज्ञानमतिदुर्लभम
ब्यवरारण्य राजस्थाने गोपालऋषि निर्झरी ||१||
ब्यावरारण्ये पुण्यतिथौ भाद्रपद कृष्ण- पञ्चमी|
सांध्य काले विक्रमार्के विशन्तिचतुःसप्ततिताम ||२||
ओमपुत्र आशुतोष च दिनेशात्मज गोपा ऋषि |
विनोद चर्या च प्रहसनं अकुर्वताम मित्रद्वय ||३||
विनोद चर्या च प्रहसनं अकुर्वताम मित्रद्वय ||३||
।। आशु उवाचः।।
भो मित्र ! गोपला मित्र! मम जीवन गतः निःरस ||
प्रचुर समय व्यतीतार्थे करोतु वार्ता निष्फल||४||
भो मित्र ! गोपला मित्र! मम जीवन गतः निःरस ||
प्रचुर समय व्यतीतार्थे करोतु वार्ता निष्फल||४||
।। गोपाल उवाचः।।
श्रणु आशु महामूर्ख: उपदेशं परमं सरल||
मर्त्यलोके मूर्खज्ञाति भीषणम प्रचंडं प्रबल ||५||
श्रणु आशु महामूर्ख: उपदेशं परमं सरल||
मर्त्यलोके मूर्खज्ञाति भीषणम प्रचंडं प्रबल ||५||
युगे युगे मूर्खलीला फलितं मूर्खणांगति||
कल्पादौर्महादैत्यैर्मनुष्याणाम च संप्रतिः||६||
प्रथमं प्रबल मूर्खश्च द्वितीयं प्रचंडस्तदा||
तृतीयं भीषणम मूर्खः संज्ञा वदति शारदा ||७||
कल्पादौर्महादैत्यैर्मनुष्याणाम च संप्रतिः||६||
प्रथमं प्रबल मूर्खश्च द्वितीयं प्रचंडस्तदा||
तृतीयं भीषणम मूर्खः संज्ञा वदति शारदा ||७||
क्रमशर्चरितमूर्खमपारमथकं चान्योन्य इति||
मूर्खणांप्रकृतिर्क्रमशर्तामसराजस च सात्विकी||८||
मूर्खणांप्रकृतिर्क्रमशर्तामसराजस च सात्विकी||८||
खण्ड मूर्ख प्रबल जाति क्लान्तर्भवति क्षिप्रता||
वयसि प्रथम चतुर्थान्शे प्रबलं त्यजति मूर्खताः||९||
वयसि प्रथम चतुर्थान्शे प्रबलं त्यजति मूर्खताः||९||
आत्मसमर्पणम कृत्वा तु विधाने प्रकृतिरपरः||
वा तपस्यैव प्रबल याति प्रचंडं परिवर्तिताः||१०||
वा तपस्यैव प्रबल याति प्रचंडं परिवर्तिताः||१०||
अखण्ड मूर्ख प्रचंडेति वर्धन्ते इव जन्मना||
परिवर्तते इदम जन्मे नष्टम भवति अन्यथा||११||
परिवर्तते इदम जन्मे नष्टम भवति अन्यथा||११||
वयसि अंत चतुर्थान्शे प्रचंडं तु परीक्षिता||
पृकृते समर्पणम कृत्वा अथवा भवति भीषणाः||१२||
पृकृते समर्पणम कृत्वा अथवा भवति भीषणाः||१२||
शस्पभोजी द्वाविमौ मूर्खः सम वृषभः च गर्दभः||
भवाटवी ते विचारन्ते अनन्तकालेति नान्यथा||१३||
परिपूर्णः भीषणम मूर्खः लभ्यते क्षिप्र कैवल्यम||
दुर्लभं अतिदुर्लभम भीषणम सम मूर्खताः||१४||
भीषणं क्रियते कर्मं विरुद्धं प्रकृतिर्विधि||
ईशकृपा गतं। मुक्तवा चक्राणि जराजन्मना||१५||
भवाटवी ते विचारन्ते अनन्तकालेति नान्यथा||१३||
परिपूर्णः भीषणम मूर्खः लभ्यते क्षिप्र कैवल्यम||
दुर्लभं अतिदुर्लभम भीषणम सम मूर्खताः||१४||
भीषणं क्रियते कर्मं विरुद्धं प्रकृतिर्विधि||
ईशकृपा गतं। मुक्तवा चक्राणि जराजन्मना||१५||
तपः कर्मे लब्ध भीषण कर्तव्ये इति प्रति नरः||
मनुज देह देवदुर्लभ भो आशु! भव सत्वरः ||१६||
।।आशु उवाचः।।
मूर्खः मूर्खः महामूर्खः गोपालः तव महाकृपा||
कृतार्थोहं मूर्खताः लब्ध्वा वाणी तव मुक्तिदा||१७||
मनुज देह देवदुर्लभ भो आशु! भव सत्वरः ||१६||
।।आशु उवाचः।।
मूर्खः मूर्खः महामूर्खः गोपालः तव महाकृपा||
कृतार्थोहं मूर्खताः लब्ध्वा वाणी तव मुक्तिदा||१७||
।। ऋषि मण्डू उवाचः।।
इति संवादे गोपालाशु भोजनम अकुर्वतां||
कीट भक्ष्वा अहं गत्वा तु जलगर्त क्षिप्रताम||१८||
( इति महामूर्ख तन्त्रे गोपालाशु सम्वादे द्वादशार निष्फल स्तोत्रम)
मुनि संकट सागर बोले कलियुग में प्रचुर समय व्यतीत करने में ये स्तोत्र यति आशुतोष के लिए जिस प्रकार प्रभावी हुआ वह धन्य घटनाक्रम है।
इति संवादे गोपालाशु भोजनम अकुर्वतां||
कीट भक्ष्वा अहं गत्वा तु जलगर्त क्षिप्रताम||१८||
( इति महामूर्ख तन्त्रे गोपालाशु सम्वादे द्वादशार निष्फल स्तोत्रम)
मुनि संकट सागर बोले कलियुग में प्रचुर समय व्यतीत करने में ये स्तोत्र यति आशुतोष के लिए जिस प्रकार प्रभावी हुआ वह धन्य घटनाक्रम है।
डब्बाचारी ने प्रश्न किया "हे स्वयं संकट से लिप्त होकर भी दूसरे जीवो को संकट में पहुँचाने में समर्थ मेरे भगवन! अब मेरा चित्त गोपालाशु संवाद सुन ने के लिए अधीर हो रहा है। प्रभो मेरा समय व्यतीत नही हो रहा एक कला भी अहोरात्र की भांति लग रही है, हे भक्तवत्सल! क्षिप्रता से आगे का बताईये"
मुनि संकटसागर बोले" डब्बे अपने चित्त को एकाग्र करके सुन कि ऋषि गोपाल और यति आशुतोष दोनों ही परम मित्र हैं अतः दोनों की परस्पर वार्ता मिथ्या नही हो सकती दोनों ही ज्ञानी और विरक्त महापुरुष हैं अतः अनर्गल वार्ता का भी कोई प्रश्न नही होना चाहिए, अर्थात निष्फल स्तोत्र का ज्ञान का अधिकारी वही जीव होगा जो महात्मा आशुतोष और वैरागी गोपाल में निष्ठा रखे और साथ ही कचौर्य-समोसकादि तिक्त रस व्यंजन के साथ मोदक, दुग्ध से बनी मिष्ठान्न यथा चमचम, संदेश एवं कलाकंद आदि का भोग इन्हें चढ़ाये।यदि डब्बे तेरी श्रद्धा इन महापुरुषों में नही है तो चिंतित न हो इन विप्रजनों को प्रसन्न कर उसके पश्चात शनेः शनै इनकी मूर्खताः देख तुम्हे निश्चय हो जाएगा और श्रद्धा बलवती हो जाएगी। इसके बाद इस ज्ञान का अधिकारी वही बन सकता है जो इस स्तोत्र का पाठ पंचम सुर में करके धन्य होगा।
अब ध्यान से सुनो यति आशुतोष ने जब अपने मित्र से मूर्खोपदेश के लिए प्रार्थना की ठीक उसी समय गोपालः ऋषि ने अपने समस्त वेगों का मूर्खोपदेश में प्रवर्तन कर दिया। मूर्खता में निष्णात ऋषि बोले "हे आशु! सुनो यह उपदेश बड़ा ही सरल है" ध्यान देने वाली बात यह है ऋषि ने यति को महामूर्खः कहकर सम्बोधित किया है, इसका अर्थ है कि इस ज्ञान के अधिकारी होने की पहली मांग है कि जीव स्वयं के ज्ञानीपण्डित होने के मिथ्या अभिमान का त्याग कर देने का काम करे। यति ने भी महामूर्खः होने का विशेषण धारण किया जो विरले महात्माओं को ही प्राप्त होता है, इसके पश्चात ऋषि गोपालः बोले मृत्युलोक में मूर्खज्ञाति की तीन परिभाषा है अर्थात तीन प्रकार के मूर्ख होते हैं
प्रथम है प्रबल
द्वितीय है प्रचंड
अंतिम है भीषण
( मूलपाठ में अवरोही क्रम से बताया है परंतु टीका में आरोही क्रम से पहले प्रबल तथा आगे प्रचंड आदि वर्णन किया है)
गोपालः ऋषि कहते हैं युग युग से मूर्खता का नग्न नृत्य चल रहा है मूर्खता सृष्टि के आदि से विद्यमान है इसके लिए वे आदिदैत्यों का उद्धरण भी देते हैं सर्वविदित है मधु और कैटभ ने स्वयं अपनी मृत्यु का मार्ग आदिनारायण भगवान को बता दिया था उसके पश्चात वेदव्यास की लेखनी देव दानवो की मूर्खता वर्णन में लगी रही। भस्मासुर, रावण, कंस, जरासन्ध सभी और इन्द्रादि देवता भी सभी प्रपंच में लगे रहते थे और अधुनातन काल मे मनुष्यों को मूर्खता व्यापी हुई है लेकिन यह ध्यान देने वाली बात है कि आधुनिक मनुष्य का मूर्खता का स्तर कैसा है यही उसकी बंधन और मुक्ति का हेतु बनतtा है जिस के बारे में टीका में विस्तार से बात की जाएगी।। [५वे एवम ६ठे श्लोक की टीका निश्चित हुई]
मुनि संकटसागर बोले" डब्बे अपने चित्त को एकाग्र करके सुन कि ऋषि गोपाल और यति आशुतोष दोनों ही परम मित्र हैं अतः दोनों की परस्पर वार्ता मिथ्या नही हो सकती दोनों ही ज्ञानी और विरक्त महापुरुष हैं अतः अनर्गल वार्ता का भी कोई प्रश्न नही होना चाहिए, अर्थात निष्फल स्तोत्र का ज्ञान का अधिकारी वही जीव होगा जो महात्मा आशुतोष और वैरागी गोपाल में निष्ठा रखे और साथ ही कचौर्य-समोसकादि तिक्त रस व्यंजन के साथ मोदक, दुग्ध से बनी मिष्ठान्न यथा चमचम, संदेश एवं कलाकंद आदि का भोग इन्हें चढ़ाये।यदि डब्बे तेरी श्रद्धा इन महापुरुषों में नही है तो चिंतित न हो इन विप्रजनों को प्रसन्न कर उसके पश्चात शनेः शनै इनकी मूर्खताः देख तुम्हे निश्चय हो जाएगा और श्रद्धा बलवती हो जाएगी। इसके बाद इस ज्ञान का अधिकारी वही बन सकता है जो इस स्तोत्र का पाठ पंचम सुर में करके धन्य होगा।
अब ध्यान से सुनो यति आशुतोष ने जब अपने मित्र से मूर्खोपदेश के लिए प्रार्थना की ठीक उसी समय गोपालः ऋषि ने अपने समस्त वेगों का मूर्खोपदेश में प्रवर्तन कर दिया। मूर्खता में निष्णात ऋषि बोले "हे आशु! सुनो यह उपदेश बड़ा ही सरल है" ध्यान देने वाली बात यह है ऋषि ने यति को महामूर्खः कहकर सम्बोधित किया है, इसका अर्थ है कि इस ज्ञान के अधिकारी होने की पहली मांग है कि जीव स्वयं के ज्ञानीपण्डित होने के मिथ्या अभिमान का त्याग कर देने का काम करे। यति ने भी महामूर्खः होने का विशेषण धारण किया जो विरले महात्माओं को ही प्राप्त होता है, इसके पश्चात ऋषि गोपालः बोले मृत्युलोक में मूर्खज्ञाति की तीन परिभाषा है अर्थात तीन प्रकार के मूर्ख होते हैं
प्रथम है प्रबल
द्वितीय है प्रचंड
अंतिम है भीषण
( मूलपाठ में अवरोही क्रम से बताया है परंतु टीका में आरोही क्रम से पहले प्रबल तथा आगे प्रचंड आदि वर्णन किया है)
गोपालः ऋषि कहते हैं युग युग से मूर्खता का नग्न नृत्य चल रहा है मूर्खता सृष्टि के आदि से विद्यमान है इसके लिए वे आदिदैत्यों का उद्धरण भी देते हैं सर्वविदित है मधु और कैटभ ने स्वयं अपनी मृत्यु का मार्ग आदिनारायण भगवान को बता दिया था उसके पश्चात वेदव्यास की लेखनी देव दानवो की मूर्खता वर्णन में लगी रही। भस्मासुर, रावण, कंस, जरासन्ध सभी और इन्द्रादि देवता भी सभी प्रपंच में लगे रहते थे और अधुनातन काल मे मनुष्यों को मूर्खता व्यापी हुई है लेकिन यह ध्यान देने वाली बात है कि आधुनिक मनुष्य का मूर्खता का स्तर कैसा है यही उसकी बंधन और मुक्ति का हेतु बनतtा है जिस के बारे में टीका में विस्तार से बात की जाएगी।। [५वे एवम ६ठे श्लोक की टीका निश्चित हुई]
फिर गोपालः ऋषि ने आरोही क्रम से मूर्खता के स्तर बतलाये हैं जिसके बारे में उन्हें स्वयं विद्यादायिनी देवी पराम्बा भगवती सरस्वती ने उपदेश दिया था। ऐसा ऋषि गोपालः श्लोक में स्पष्ट कहते है (इस वार्ता की टीका यही होगी )। फिर क्रम से बतलाया कि प्रबल मूर्ख का अपार चरित है और प्रचण्ड मूर्खः का अथक चरित है ठीक उसी प्रकार भीषण का भी चरित है परंतु वह अन्योन्य है अर्थात प्रथम दोनो स्तर की मूर्खताः भीषण में समाहित होती है, और अतिरिक्त मूर्खता का परिमाण भी भीषण में होता है यह इस श्लोक में नही बताया है परंतु यह बात आगे के श्लोको में स्पष्ट हो जाएगी । साथ ही प्रबल, प्रचण्ड और भीषण की प्रकृति भी क्रमशः तामसी , राजसी और सात्विक बताई गई है।
मंगुमंगल ने प्रार्थनापूर्वक प्रश्न निवेदन किया " प्रभो संकट! प्रबल का चरित अपार और प्रकृति तामसी किस प्रकार है और उसी तरह प्रचंड और भीषण के चरित और प्रकृति के बारे में विस्तार से कृपा कर बताईये"
मुनि संकट सागर बोलते है" वत्स मंगु मंगल! आगे ये वार्ता नवम श्लोक में आएगी। अभी तुम लच्छनेमि दानव के पर्वत से बहने वाली चय सरिता से चयपात्र में कुछ भर लाओ, तुम्हारे गुरू को एक स्थान पर अढाई घटी व्यतीत हो गयी है, आगे उपदेश के लिए आज्ञापालन करो यदि लच्छनेमि से युध्द में पराजित हो जाओ तो गर्वान्ध पर्वत से बिना युद्ध के मिल जाएगी वह ले आओ। जाओ शीघ्रता से जाओ और शीघ्र ही लौट आओ, और हाँ पुत्र! स्मरण रहे चयसरिता के आसपास मुखवास के गहन वनों में धूम्रदण्डिका नामक राक्षसी का निवास है उस से बच कर रहना।[७वे और ८वे श्लोक की टीका निश्चित हुई]
मंगुमंगल ने प्रार्थनापूर्वक प्रश्न निवेदन किया " प्रभो संकट! प्रबल का चरित अपार और प्रकृति तामसी किस प्रकार है और उसी तरह प्रचंड और भीषण के चरित और प्रकृति के बारे में विस्तार से कृपा कर बताईये"
मुनि संकट सागर बोलते है" वत्स मंगु मंगल! आगे ये वार्ता नवम श्लोक में आएगी। अभी तुम लच्छनेमि दानव के पर्वत से बहने वाली चय सरिता से चयपात्र में कुछ भर लाओ, तुम्हारे गुरू को एक स्थान पर अढाई घटी व्यतीत हो गयी है, आगे उपदेश के लिए आज्ञापालन करो यदि लच्छनेमि से युध्द में पराजित हो जाओ तो गर्वान्ध पर्वत से बिना युद्ध के मिल जाएगी वह ले आओ। जाओ शीघ्रता से जाओ और शीघ्र ही लौट आओ, और हाँ पुत्र! स्मरण रहे चयसरिता के आसपास मुखवास के गहन वनों में धूम्रदण्डिका नामक राक्षसी का निवास है उस से बच कर रहना।[७वे और ८वे श्लोक की टीका निश्चित हुई]
उसके पश्चात लगभग ३७ पल ४०विपल व्यतीत हुए होंगे, मुनिसँकट सागर अधीर हो उठे और चल चल के समीप की समस्त भूमि को विदीर्ण कर दिया। साथ ही उस समय उन्होंने अपनी दिव्य वाणी से इंद्रप्रस्थ, हस्तिनापुर और कर्णाटक और विदर्भ आदि स्थानों को गुंजायमान कर डाला, तब जाकर मंगुमंगल लौट आये और मुनिवर को चयपात्र भर कर समर्पित किया। चयपान के पश्चात मुनि ने फिर बोलना प्रारम्भ किया।
"जिज्ञासु शिष्यों! प्रेमपूर्वक न सही समय व्यतीत करने के अभिप्राय से ही आगे सुनो। प्रथम प्रकार के मूर्ख प्राणी खण्ड मूर्ख अर्थात अल्प मूढ़ होते है प्रायः देखने मे प्रथमद्रष्टया मूर्खः ही लगते हैं ये बहुत जल्दी प्रसन्न और उतनी ही शीघ्रता से दुखी भी हो जाते हैं। अधिकतर समय सांसारिक प्रपंचो में लगे ये मूर्खः स्वयम के बारे में कुछ प्रयत्न नही करते और न ही प्रचण्ड मूर्खः बनने के विषय ही में सोच पाते है, और गोपालः ऋषि ने प्रबल मूर्ख को शीघ्र क्लांत अर्थात थक जाने वाला बतलाया है इसका अर्थ स्वयम के मूर्खताः के विकास के संदर्भ में कहा है ( इस विषय मे सगर्भागौक्रय न्याय का उपयोग किया गया है। जिस प्रकार सगर्भा गाय के क्रय के साथ ही उसके गर्भ में पल रहे वत्स का भी क्रय हो जाता है उसी प्रकार प्रबल के क्लांत होने का विषय उसका मूर्खताः की वृद्धि का तप ही है क्योंकि प्रबल जाति के प्राणी का चरित अपार कहा गया है। अपार इस हेतु कि प्रबल सांसारिक क्रिया में इतना निमग्न रहता है कि उसका अंत नही आता प्रबल की लीला इसी तरह अनवरत चलती रहती है। प्रबल मूर्ख अपने जीवन काल के प्रथम चतुर्थान्श में ही निर्णय कर लेता है कि उसे प्रचंड मूर्ख में परिवर्तित होने की चेष्टा करनी है अथवा तो सांसारिक प्रपंच के समक्ष आत्मसमर्पण करना है। इस प्रकार कोई कोई प्रबलं मूर्ख जीवन के द्वितीय चतुर्थांश में प्रवेश के बाद प्रचंडता में दीक्षित हो पाता है। शेष सारे प्रबलं मूर्खः अपनी तामसिक प्रकृति के चलते प्रबलं मूर्खता को त्याग कर सांसारिक निद्रा में सो जाते हैं।"
" इस प्रकार गोपालः ऋषि की प्रज्ञा से संसार मे यह बात निश्चय कही जा सकती है कि सभी मनुष्य जन्मना मूर्ख ही उत्पन्न होते है शनै शनै संसार मे उपस्थित स्पृह वायु के सेवन से मूर्खताः मन्द पड़ती जाती है और अंत मे खत्म हो जाती है। अतः मनुष्य को कर्त्तव्य है कि अपनी मूर्खता को और प्रयत्न पूर्वक बढ़ाये अन्यथा ८४लाख योनि के पश्चात ही मूर्खताः सुलभ हो पाएगी।"
"जिज्ञासु शिष्यों! प्रेमपूर्वक न सही समय व्यतीत करने के अभिप्राय से ही आगे सुनो। प्रथम प्रकार के मूर्ख प्राणी खण्ड मूर्ख अर्थात अल्प मूढ़ होते है प्रायः देखने मे प्रथमद्रष्टया मूर्खः ही लगते हैं ये बहुत जल्दी प्रसन्न और उतनी ही शीघ्रता से दुखी भी हो जाते हैं। अधिकतर समय सांसारिक प्रपंचो में लगे ये मूर्खः स्वयम के बारे में कुछ प्रयत्न नही करते और न ही प्रचण्ड मूर्खः बनने के विषय ही में सोच पाते है, और गोपालः ऋषि ने प्रबल मूर्ख को शीघ्र क्लांत अर्थात थक जाने वाला बतलाया है इसका अर्थ स्वयम के मूर्खताः के विकास के संदर्भ में कहा है ( इस विषय मे सगर्भागौक्रय न्याय का उपयोग किया गया है। जिस प्रकार सगर्भा गाय के क्रय के साथ ही उसके गर्भ में पल रहे वत्स का भी क्रय हो जाता है उसी प्रकार प्रबल के क्लांत होने का विषय उसका मूर्खताः की वृद्धि का तप ही है क्योंकि प्रबल जाति के प्राणी का चरित अपार कहा गया है। अपार इस हेतु कि प्रबल सांसारिक क्रिया में इतना निमग्न रहता है कि उसका अंत नही आता प्रबल की लीला इसी तरह अनवरत चलती रहती है। प्रबल मूर्ख अपने जीवन काल के प्रथम चतुर्थान्श में ही निर्णय कर लेता है कि उसे प्रचंड मूर्ख में परिवर्तित होने की चेष्टा करनी है अथवा तो सांसारिक प्रपंच के समक्ष आत्मसमर्पण करना है। इस प्रकार कोई कोई प्रबलं मूर्ख जीवन के द्वितीय चतुर्थांश में प्रवेश के बाद प्रचंडता में दीक्षित हो पाता है। शेष सारे प्रबलं मूर्खः अपनी तामसिक प्रकृति के चलते प्रबलं मूर्खता को त्याग कर सांसारिक निद्रा में सो जाते हैं।"
" इस प्रकार गोपालः ऋषि की प्रज्ञा से संसार मे यह बात निश्चय कही जा सकती है कि सभी मनुष्य जन्मना मूर्ख ही उत्पन्न होते है शनै शनै संसार मे उपस्थित स्पृह वायु के सेवन से मूर्खताः मन्द पड़ती जाती है और अंत मे खत्म हो जाती है। अतः मनुष्य को कर्त्तव्य है कि अपनी मूर्खता को और प्रयत्न पूर्वक बढ़ाये अन्यथा ८४लाख योनि के पश्चात ही मूर्खताः सुलभ हो पाएगी।"
विस्मित बटुक डब्बाचारी बोले " प्रभो ! एक शंका है,। वह यह है कि यदि प्रबल मूर्खः आयुर्दाय के प्रथम चतुर्थांश ही में मूर्खः से प्रचंडता की और गतिमान हो सकने में समर्थ हो सकता है तो इस विषय मे शास्त्र की उन प्रबलं मूर्खज्ञाति के अभिभावकों को क्या आज्ञा है?"
मुनि संकट सागर के सुदीर्घ वृत्ताकार नेत्रद्वय से जलधार बह निकली अपने आप को संयत करके वे बोले" वत्स! तुम जगत के कल्याण के लिए कितने उचित प्रश्न करके मुझ ज्ञान के सागर में से मोती ढूंढ लेते हो । धन्य हो डब्बाचारी! धन्य हो में तुमको वरदान देता हूँ कि तुम्हारे विवाह के पश्चात भी तुम बटुक ही जाने जाओगे, और सदैव ऐसे ही प्रश्न करते रहोगे।" पुनः मुनि संकटसागर बोले " पुत्र! डब्बाचारी! सुनो अभी यह स्तोत्र का प्रचार तुम्हे ही करना है। अभिभावक यदि प्रचण्ड अथवा भीषण मूर्ख है तो अपने पुत्रों को संसार की निद्रा में सोने नही देंगे और यदि ऐसा नही है तो तुम जैसे जीव जिन पर गोपालाशु संवाद की वर्षा हुई है का कर्तव्य है उन प्रबल मूर्खों को बचाएं।"
डब्बाचारी बोले " महात्मन! आप के नेत्रों के सुदीर्घ वृत्ताकार होने का क्या कारण है ?
मुनिवर संकट बोले"वत्स, डब्बे! यद्यपि लोक समुदाय को तुम्हारा प्रश्न अनर्गल प्रतीत हुआ है परंतु तुम्हारी जिज्ञासा के कारण लोकसमुदाय को एक दिव्य घटनाक्रम के बारे में ज्ञान के निमित्त भी तुम ही हो"
"ऐसा कौनसा दिव्य घटनाक्रम है प्रभो!" डब्बाचारी का निवेदन हुआ। तभी सभी भागम शास्त्रो के मूल तत्व को जानने वाले परमेष्ठी मुनि संकट सागर भाव विभोर होकर बोले" वत्स! मैंने पहले यह विदित नही किया कि गोपालाशु संवाद को एक नही दो जीवों ने सुना था। प्रथम थे ऋषि मण्डू और द्वितीय में मुनि संकट सागर, और जब सृष्टिकर्ता ने ऋषि मण्डू को वरदान दिया तब मैंने परमपिता ब्रम्हाजी से याचना की 'हे सृष्टिकर्ता! वरदान मुझे भी मिले तो उचित होगा क्योंकि मैंने भी संवाद सुनने का पुण्य प्राप्त किया है'। यह सुन ब्रम्हाजी बोले वत्स! अब मंडू को दिया वरदान तो वापिस नही हो सकता परंतु जिन नेत्रों से ऋषि मंडू ने गोपालाशु के दर्शन किये वैसे ही नेत्र तुम्हें भी मिलेंगे और इस वार्ता की प्रथम टीका भी तुम ही लिखोगे और साथ ही यति आशुतोष भी तुम्हे अपना मित्र बनाएंगे। तथास्तु! ऐसा बोल कर ब्रम्हदेव अंतर्धान हो गए।
इसके पश्चात मुनि संकट के समस्त शिष्यो ने मुनिवर की भूरि भूरि प्रशंसा की और मुनिवर से उपदेश को निरंतर रखने का निवेदन भी किया । तब मुनिवर ने पुनः विषय पर कहना आरम्भ कर दिया।
"वत्स! आगे सुनो यह ऋषि गोपालः का वचन है कि तपस्या से प्रबलं मूर्खः प्रचंडता को प्राप्त हो सकता है (यहाँ ९वम एवम १०म श्लोक की टीका निश्चित की गयी)
डब्बाचारी बोले " महात्मन! आप के नेत्रों के सुदीर्घ वृत्ताकार होने का क्या कारण है ?
मुनिवर संकट बोले"वत्स, डब्बे! यद्यपि लोक समुदाय को तुम्हारा प्रश्न अनर्गल प्रतीत हुआ है परंतु तुम्हारी जिज्ञासा के कारण लोकसमुदाय को एक दिव्य घटनाक्रम के बारे में ज्ञान के निमित्त भी तुम ही हो"
"ऐसा कौनसा दिव्य घटनाक्रम है प्रभो!" डब्बाचारी का निवेदन हुआ। तभी सभी भागम शास्त्रो के मूल तत्व को जानने वाले परमेष्ठी मुनि संकट सागर भाव विभोर होकर बोले" वत्स! मैंने पहले यह विदित नही किया कि गोपालाशु संवाद को एक नही दो जीवों ने सुना था। प्रथम थे ऋषि मण्डू और द्वितीय में मुनि संकट सागर, और जब सृष्टिकर्ता ने ऋषि मण्डू को वरदान दिया तब मैंने परमपिता ब्रम्हाजी से याचना की 'हे सृष्टिकर्ता! वरदान मुझे भी मिले तो उचित होगा क्योंकि मैंने भी संवाद सुनने का पुण्य प्राप्त किया है'। यह सुन ब्रम्हाजी बोले वत्स! अब मंडू को दिया वरदान तो वापिस नही हो सकता परंतु जिन नेत्रों से ऋषि मंडू ने गोपालाशु के दर्शन किये वैसे ही नेत्र तुम्हें भी मिलेंगे और इस वार्ता की प्रथम टीका भी तुम ही लिखोगे और साथ ही यति आशुतोष भी तुम्हे अपना मित्र बनाएंगे। तथास्तु! ऐसा बोल कर ब्रम्हदेव अंतर्धान हो गए।
इसके पश्चात मुनि संकट के समस्त शिष्यो ने मुनिवर की भूरि भूरि प्रशंसा की और मुनिवर से उपदेश को निरंतर रखने का निवेदन भी किया । तब मुनिवर ने पुनः विषय पर कहना आरम्भ कर दिया।
"वत्स! आगे सुनो यह ऋषि गोपालः का वचन है कि तपस्या से प्रबलं मूर्खः प्रचंडता को प्राप्त हो सकता है (यहाँ ९वम एवम १०म श्लोक की टीका निश्चित की गयी)
मुनि संकटसागर ने आगे बोलना प्रारम्भ किया " अब आगे द्वितीय श्रेणी के मूर्ख प्रचण्ड का वर्णन ऋषि गोपाल ने किया है। यह मूर्खज्ञाति अखंड मूर्खता से सज्ज होती है, अखंडता इस प्रयोजन से क्योंकि ऋषि ने प्रचण्ड मूर्ख की उत्पत्ति के विषय मे एक सिद्धांत का प्रमाण नवम और दशम श्लोक में दे दिया है, कि प्रबल स्तर से प्रचण्ड मूर्खता के स्तर में किस भांति प्रवेश किया जा सकता है। और दूसरा सिद्धांत ऋषि एकादश श्लोक में बताया है कि प्रचण्ड मूर्ख जन्म से भी ये गुण लिए उत्पत्ति को प्राप्त होते हैं।"
"किन्तु प्रभो आप ने तो पूर्व में बताया कि सभी जीव जन्मना प्रबलं मूर्ख होते हैं?" डब्बाचारी ने आकाशीय तड़ित की भांति अकस्मात प्रश्न किया। सभा मे एकक्षण को शांति हो गयी, और तब अकस्मात मुनिवर संकटसागर के लिए आकाशवाणी हुई "हे मुनि संकट ! अपने शिष्यों के प्रति तुम्हारी ममता को मध्य लाना उचित नही, पूर्व में ब्रम्हदेव ने तुन्हें सुरभि धेनु का दान दिया था वह भी तुम अजयमेरू पर्वत पर भूल आये पुनः पुनः जब भी स्वाति नक्षत्र में तुम अर्चना करोगे तब संध्या वन्दन और पूजा आदि के पश्चात तुम्हे सुचित्रावली बनानी होगी एवम तब तुम्हारे डब्बाचारी जैसे शिष्य तुम्हारे उपदेश का तात्पर्य तत्व से जान पाएंगे"
डब्बाचारी भय से कांपने लगे उनकी वाणी रुद्ध होती जाती थी पुनः साहस एकत्रित कर के बोले "हे कृपालु! मुझसे क्या अपराध हो गया? ये आकाशवाणी क्या मुझ मूढ़ के प्रश्न के कारण हुई? हे देव! कृपया दया करें।"
शांत सौम्य मुख मुद्रा को कम्पायमान करते हुए मुनि संकट बोले "पुत्र डब्बाचारी! तुम्हे मैंने पूर्व में बताया था कि सभी जीव जन्मना मूर्ख ही होते है और स्पृह वायु के संचरण से मूर्खता का त्याग कर देते हैँ। न कि ऐसा बताया कि सभी जीव जन्मना प्रबल मूर्ख होते हैं। यही सत्य है । है न? बोलो"
डब्बाचारी बोले "प्रमादवश त्रुटि हो गयी परमेष्ठिन! क्षमा करें!"
"नही पुत्र! हमारी तुम पर ममता ब्रम्हदेव को उचित नही लगती, क्योंकि तुम गुरु के उपदेश में त्रुटि का दर्शन कर रहे हो और स्वयं को अपने गुरु की सभा मे अधिक पंडित बताने की चेष्टा करते करते मूल उपदेशं ही को भूल रहे हो। तुम्हारी ये क्रिया ठीक चतुरदानव की तरह है जिसने अपने गुरुभ्राता रणछोड़दास से द्रोह किया था उसका परिणाम धूर्तत्रयी नामक ग्रंथ में सभी को विदित है।"
"अभी मेरे लिए क्या दण्ड है गुरूवर?" डब्बाचारी ने प्रार्थना की।
"यद्यपि तात! तुम भोले हो अतः क्षमा के अधिकारी हो किन्तु ब्रम्हदेव के कोप से तुम्हे एक शाप देता हूं कि अब जब कभी तुम अपनी बुद्धिमत्ता का अनर्गल प्रदर्शन करोगे तुम्हारी वाणी अवरुद्ध हो जाएगी और अपना मस्तक पाँचबार ऊपर नीचे करने पर एक शब्द कह पाओगे पूरा वाक्य कहने के लिए पच्चीस बार मस्तक और हाथ हिलाने होंगे" कह कर मुनि शांत हो गए ।
कम्पित डब्बाचारी हाथ जोड़ कर बोले"आपका शाप शिरोधार्य भगवान! आप शाप में भी वरदान ही देते हो"
मुनि संकट स्मित हास्य के साथ पुनः उपदेशं करने लगते हैं। "प्रचण्ड मूर्ख अपने पूर्वजों के तप से जन्मना प्रचण्ड मूर्ख हो सकते हैं अथवा स्वयम तपस्या से इस स्तर पर आते हैं। प्रचण्ड की लीला और चरित अथक कहे गए है क्योंकि ये कूपमंडूक की भांति एक ही स्थान या परिस्थिति में बिना थके और बिना रुके कर्म में प्रवृत्त रहते हैं और इस हेतु अखंड भी कहे जाते हैं क्योंकि प्रचण्ड मूर्ख आयुर्दाय के अंतिम चतुर्थांश तक या तो प्रचण्ड ही रहते है वा उसके पूर्व ही तपस्या से भीषणता को प्राप्त कर लेते हैं। अर्थात कैसी भी मूर्खता हो प्रचण्ड वा भीषण जीवन के अंतिम चतुर्थांश तक उस मूर्खता से प्रचण्ड मूर्ख आवृत्त ही रहते है। परंतु जीवन के अंतिम समय यदि दैव सहायक न हो और प्रचण्ड मूर्ख की तपस्या में प्रमादवश त्रुटि रह जाए तो प्रचण्ड की मूर्खता नष्ट भी हो सकती है किंतु साथ ही जीवन काल समाप्त होने से मूर्खता खण्डित नही हो पाती।चूंकि प्रबलं सदैव परिश्रम में लगा रहता है और अंत समय तक प्रयास करता है अतः उसका यह चरित राजसिक गुण वाला हुआ।
[यहाँ ११वें और १२वें श्लोक की टीका निश्चित हुई]
"महात्मन! कृपया यह बताएं कि यदि उक्त दोनों प्रकार के मूर्ख यदि मूर्खता के पवित्र आश्रय का तिरस्कार रूपी घोर पाप में प्रवृत्त होते हैं, तो उनका क्या परिणाम होता है?" इस बार बटुक डब्बाचारी के स्थान पर मंगुमंगल और शेनुराज एक स्वर में बोले।
"किन्तु प्रभो आप ने तो पूर्व में बताया कि सभी जीव जन्मना प्रबलं मूर्ख होते हैं?" डब्बाचारी ने आकाशीय तड़ित की भांति अकस्मात प्रश्न किया। सभा मे एकक्षण को शांति हो गयी, और तब अकस्मात मुनिवर संकटसागर के लिए आकाशवाणी हुई "हे मुनि संकट ! अपने शिष्यों के प्रति तुम्हारी ममता को मध्य लाना उचित नही, पूर्व में ब्रम्हदेव ने तुन्हें सुरभि धेनु का दान दिया था वह भी तुम अजयमेरू पर्वत पर भूल आये पुनः पुनः जब भी स्वाति नक्षत्र में तुम अर्चना करोगे तब संध्या वन्दन और पूजा आदि के पश्चात तुम्हे सुचित्रावली बनानी होगी एवम तब तुम्हारे डब्बाचारी जैसे शिष्य तुम्हारे उपदेश का तात्पर्य तत्व से जान पाएंगे"
डब्बाचारी भय से कांपने लगे उनकी वाणी रुद्ध होती जाती थी पुनः साहस एकत्रित कर के बोले "हे कृपालु! मुझसे क्या अपराध हो गया? ये आकाशवाणी क्या मुझ मूढ़ के प्रश्न के कारण हुई? हे देव! कृपया दया करें।"
शांत सौम्य मुख मुद्रा को कम्पायमान करते हुए मुनि संकट बोले "पुत्र डब्बाचारी! तुम्हे मैंने पूर्व में बताया था कि सभी जीव जन्मना मूर्ख ही होते है और स्पृह वायु के संचरण से मूर्खता का त्याग कर देते हैँ। न कि ऐसा बताया कि सभी जीव जन्मना प्रबल मूर्ख होते हैं। यही सत्य है । है न? बोलो"
डब्बाचारी बोले "प्रमादवश त्रुटि हो गयी परमेष्ठिन! क्षमा करें!"
"नही पुत्र! हमारी तुम पर ममता ब्रम्हदेव को उचित नही लगती, क्योंकि तुम गुरु के उपदेश में त्रुटि का दर्शन कर रहे हो और स्वयं को अपने गुरु की सभा मे अधिक पंडित बताने की चेष्टा करते करते मूल उपदेशं ही को भूल रहे हो। तुम्हारी ये क्रिया ठीक चतुरदानव की तरह है जिसने अपने गुरुभ्राता रणछोड़दास से द्रोह किया था उसका परिणाम धूर्तत्रयी नामक ग्रंथ में सभी को विदित है।"
"अभी मेरे लिए क्या दण्ड है गुरूवर?" डब्बाचारी ने प्रार्थना की।
"यद्यपि तात! तुम भोले हो अतः क्षमा के अधिकारी हो किन्तु ब्रम्हदेव के कोप से तुम्हे एक शाप देता हूं कि अब जब कभी तुम अपनी बुद्धिमत्ता का अनर्गल प्रदर्शन करोगे तुम्हारी वाणी अवरुद्ध हो जाएगी और अपना मस्तक पाँचबार ऊपर नीचे करने पर एक शब्द कह पाओगे पूरा वाक्य कहने के लिए पच्चीस बार मस्तक और हाथ हिलाने होंगे" कह कर मुनि शांत हो गए ।
कम्पित डब्बाचारी हाथ जोड़ कर बोले"आपका शाप शिरोधार्य भगवान! आप शाप में भी वरदान ही देते हो"
मुनि संकट स्मित हास्य के साथ पुनः उपदेशं करने लगते हैं। "प्रचण्ड मूर्ख अपने पूर्वजों के तप से जन्मना प्रचण्ड मूर्ख हो सकते हैं अथवा स्वयम तपस्या से इस स्तर पर आते हैं। प्रचण्ड की लीला और चरित अथक कहे गए है क्योंकि ये कूपमंडूक की भांति एक ही स्थान या परिस्थिति में बिना थके और बिना रुके कर्म में प्रवृत्त रहते हैं और इस हेतु अखंड भी कहे जाते हैं क्योंकि प्रचण्ड मूर्ख आयुर्दाय के अंतिम चतुर्थांश तक या तो प्रचण्ड ही रहते है वा उसके पूर्व ही तपस्या से भीषणता को प्राप्त कर लेते हैं। अर्थात कैसी भी मूर्खता हो प्रचण्ड वा भीषण जीवन के अंतिम चतुर्थांश तक उस मूर्खता से प्रचण्ड मूर्ख आवृत्त ही रहते है। परंतु जीवन के अंतिम समय यदि दैव सहायक न हो और प्रचण्ड मूर्ख की तपस्या में प्रमादवश त्रुटि रह जाए तो प्रचण्ड की मूर्खता नष्ट भी हो सकती है किंतु साथ ही जीवन काल समाप्त होने से मूर्खता खण्डित नही हो पाती।चूंकि प्रबलं सदैव परिश्रम में लगा रहता है और अंत समय तक प्रयास करता है अतः उसका यह चरित राजसिक गुण वाला हुआ।
[यहाँ ११वें और १२वें श्लोक की टीका निश्चित हुई]
"महात्मन! कृपया यह बताएं कि यदि उक्त दोनों प्रकार के मूर्ख यदि मूर्खता के पवित्र आश्रय का तिरस्कार रूपी घोर पाप में प्रवृत्त होते हैं, तो उनका क्या परिणाम होता है?" इस बार बटुक डब्बाचारी के स्थान पर मंगुमंगल और शेनुराज एक स्वर में बोले।
मुनि संकट की गिरा गंभीर हुई और बोले "मेरे प्रिय शिष्यों! इस के बारे में त्रयोदश श्लोक में ऋषि गोपालः ने उन मूर्खता से पतित जीवों को तृण भोजी वृषभ और गर्दभ कहा है, जो संसार रूपी वन में अनंतकाल अर्थात पुनः मनुष्य देह मिलने तक भटकते रहते हैं। उसके पश्चात ऋषि गोपालः ने भीषण मूर्ख के लक्षण बतलाये हैं। ऋषि कहते है सात्विक स्वभाव वाले भीषण मूर्खः में पूर्वोक्त दोनों ही प्रकार के मूर्खज्ञाति के गुण तो होते ही है साथ ही सात्विक स्वभाव का होने से भीषण मूर्ख अपनी मूर्खताः से चारो दिशाओ से परिपूर्ण होता है। परिपूर्ण भीषण मूर्ख प्रकृति के विधान के समक्ष मृत्यु शैय्या पर भी पराजित नही होता, या तो एक जन्म में अन्यथा ठीक अगले जन्म में स्वयम भगवान उसे मोक्ष प्रदान करते हैं क्योंकि परमात्मा भी जानते है कि इस भीषण मूर्ख का और कुछ भविष्य नही हो सकता और ये यदि संसार मे टिके रह जाये तो सारी सृष्टि को अपनी मूर्खता के प्रभाव में ले कर तीनो लोको की गति अवरुद्ध कर देगा। ऋषि गोपालः कहते हैं ऐसी भीषण मूर्खता अति दुर्लभ है क्योंकि विधि और प्रकृति के विरुद्ध कर्म करना अति दुष्कर और प्रायः असम्भव है। भीषण मूर्खः यदि मुक्त नही हुआ तो उसका अगला जन्म भी भीषण ही का होता है और आयु के द्वितीय चतुर्थांश तक भीषणता में दीक्षित हो जाता है फिर परमात्मा को स्वयं मुक्ति देनी पड़ती है।
इसी हेतु प्रत्येक नर का कर्त्तव्य है कि घोर तप रूपी कर्म करके भीषण मूर्खता को प्राप्त करे क्योंकि ये मनुष्य का शरीर देवों को भी दुर्लभ है और मूर्खताः कि प्राप्ति कलियुग में केवल मनुष्य देह के लिए आरक्षित की गई है। हे आशु! शीघ्रता करो और तपपूर्वक भीषण मूर्खता को प्राप्त होओ।"
[१३वें श्लोक से षोडश श्लोक पर्यन्त टीका निश्चित हुई]
मुनि संकटसागर ने कहा " यति आशुतोष भाव विभोर होकर बोले कि हे महामूर्ख गोपालः आपकी महा कृपा हुई कि मैं। (यति आशुतोष) कृतार्थ हुआ हूं आपकी वाणी मुक्ति दायिनी है। इसके बाद मण्डू ऋषि ने देखा दोनो मूर्खद्वय भोजन करने अपने अपने भवन को गमन कर गए। और मंडू ऋषि ने अपनी सुदीर्घ जिह्वहा से लपक कर कीट का भक्षण किया और पास ही के जलगर्त में शीघ्रतासे प्रवेश कर गए
[१३वें श्लोक से षोडश श्लोक पर्यन्त टीका निश्चित हुई]
मुनि संकटसागर ने कहा " यति आशुतोष भाव विभोर होकर बोले कि हे महामूर्ख गोपालः आपकी महा कृपा हुई कि मैं। (यति आशुतोष) कृतार्थ हुआ हूं आपकी वाणी मुक्ति दायिनी है। इसके बाद मण्डू ऋषि ने देखा दोनो मूर्खद्वय भोजन करने अपने अपने भवन को गमन कर गए। और मंडू ऋषि ने अपनी सुदीर्घ जिह्वहा से लपक कर कीट का भक्षण किया और पास ही के जलगर्त में शीघ्रतासे प्रवेश कर गए
"तो शिष्यों मैंने जो उपदेशं तुम्हें दिया है उससे तुम्हारा पाण्डित्य नष्ट हुआ? स्पृह वायु के सम्पर्क में आने से जो विष ज्वर तुम्हे चढ़ा वह नष्ट हुआ? मुनि संकट बोल कर समाधिस्थ हो गए।
मुनिवर संकट के शिष्य बटुक डब्बाचारी के नेतृत्व में एक स्वर में बोले "हे परमेष्ठिन! समस्त भागम शास्त्र के ज्ञाता! मूर्खता के प्रधान पुरोहित! आपकी जय हो! समस्त दिशाओं में आपकी जय हो! प्रभो आप ने हम सांसारिक जीवों पर बड़ा उपकार किया है आपकी महिमा अनंत गुणों वाली है। हमारा स्पृह वायु के संसर्ग से उत्पन्न विष ज्वर आज नष्ट हुआ आपकी कृपा हुई।"
" मुनि 10008 डब्वचारी सेवित परमेष्ठी संकटसागर की जय जय कार होवे" ऐसा बोल कर सभी शिष्य शांत हो गए। तभी सभी ने देखा मुनिवर ने अपने मण्डूक समान दिव्यचक्षु खोले और कहा " ये उपदेशं जो मैंने आज निष्फल स्तोत्र पर शिष्यों तुम्हे दिया है आज से निष्फल भाष्य कहलायेगा। मेरे साथ साथ अब सभी शिष्य नृत्य संकीर्तन में प्रवृत्त होंगे "
ऋषि श्रेष्ठ गोपाल की जय!
यतिराज आशुतोष महात्मा की जय!
मुनिराज संकटसागर की जय!
उभयचारि जलर्षि मण्डू की जय!
जयकार से दिग्दिगंत आंदोलित हो गुंजायमान हो उठे । देवता पुष्पवृष्टि करने लगे। मूर्खज्ञाति के मनुष्यों के भवनों पर दुग्ध वृष्टि होने लगी । ऋषि गोपालः और यतिराज आशुतोष ने भक्तों को दर्शन दिए। और मिष्ठान आदि का भोग लगा अंतर्ध्यान हो गए। मुनिवर और उनके शिष्य सभी हर्षातिरेक में विभोर हो नाचने गाने लगे
मौन शांति शांति शांति
शिष्यों शेनुराज, डब्वचारी और मंगुमंगल के संकीर्तन नृत्य में मुनिसँकट का अलौकिक दिव्य प्रागट्य(मध्य में)
मुनिवर संकट के शिष्य बटुक डब्बाचारी के नेतृत्व में एक स्वर में बोले "हे परमेष्ठिन! समस्त भागम शास्त्र के ज्ञाता! मूर्खता के प्रधान पुरोहित! आपकी जय हो! समस्त दिशाओं में आपकी जय हो! प्रभो आप ने हम सांसारिक जीवों पर बड़ा उपकार किया है आपकी महिमा अनंत गुणों वाली है। हमारा स्पृह वायु के संसर्ग से उत्पन्न विष ज्वर आज नष्ट हुआ आपकी कृपा हुई।"
" मुनि 10008 डब्वचारी सेवित परमेष्ठी संकटसागर की जय जय कार होवे" ऐसा बोल कर सभी शिष्य शांत हो गए। तभी सभी ने देखा मुनिवर ने अपने मण्डूक समान दिव्यचक्षु खोले और कहा " ये उपदेशं जो मैंने आज निष्फल स्तोत्र पर शिष्यों तुम्हे दिया है आज से निष्फल भाष्य कहलायेगा। मेरे साथ साथ अब सभी शिष्य नृत्य संकीर्तन में प्रवृत्त होंगे "
ऋषि श्रेष्ठ गोपाल की जय!
यतिराज आशुतोष महात्मा की जय!
मुनिराज संकटसागर की जय!
उभयचारि जलर्षि मण्डू की जय!
जयकार से दिग्दिगंत आंदोलित हो गुंजायमान हो उठे । देवता पुष्पवृष्टि करने लगे। मूर्खज्ञाति के मनुष्यों के भवनों पर दुग्ध वृष्टि होने लगी । ऋषि गोपालः और यतिराज आशुतोष ने भक्तों को दर्शन दिए। और मिष्ठान आदि का भोग लगा अंतर्ध्यान हो गए। मुनिवर और उनके शिष्य सभी हर्षातिरेक में विभोर हो नाचने गाने लगे
मौन शांति शांति शांति
शिष्यों शेनुराज, डब्वचारी और मंगुमंगल के संकीर्तन नृत्य में मुनिसँकट का अलौकिक दिव्य प्रागट्य(मध्य में)
यदि आप को यह प्रहसन पसंद आया हो तो मुझे प्रसन्नता होगी। pdf के लिए मेल करें greybever@gmail.com
ReplyDeleteअच्छा हुआ तू अंतर्ध्यान हो गया वर्ना मैं तेरा अंत कर देता।
ReplyDeleteप्रभो! ब्रह्मदेव के वरदान स्वरूप तो आपको गोल चक्षु और मेरी मित्रता प्राप्ति हुई है। 😉 मुनिवर! आप का अनुग्रह है कि कमेंट किया😹😹😹
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